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-७, २७४ सत्तमौ महाधियारो
(७०१ पंचसहस्साणि दुवे सयाणि इगिवण्ण जोयणा अधिया। उणतीसकला पढमप्पहम्मि दिणयर मुहुत्तगदिमाणं ॥
एवं दुचरिममग्गंत' णेदव्वं । पंचसहस्सा तिसया पंच चिय जोयगाणि अदिरेगो।चोद्दसकलाभो बाहिरपहम्मि दिगवइसुहत्तगदिमाणं ॥
दिणपरणयातलादो चत्तारि पमागअंगुलाणि च ! हेट्ठा गच्छिय होंति अरिहविमाणाग धयदंडा ॥ २७२
रिट्ठाणं णयरतला अंजणवण्णा अरिहरयणमया । किंचूर्ण जोयणयं पत्तेक्कं वाससंजुत्तं ॥ २७३ पण्णाधियदुसयाणि कोदंडागं हुवंति पत्तेक्कं । बहुलत्तणपरिमाणं तण्णयरागं सुरम्माणं ॥ २७४
२५०।
प्रथम पथमें सूर्यकी एक मुहूर्तपरिमित गतिका प्रमाण पांच हजार दो सौ इक्यावन योजन और एक योजनकी साठ कलाओंमेंसे उनतीस कला अधिक है ॥ २७० ॥
इस प्रकार द्विचरम अर्थात् एक सौ तेरासीवे मार्ग तक ले जाना चाहिये ।
बाह्य अर्थात् एक सौ चौरासी मार्गमें सूर्यकी मुहूर्तपरिमित गतिका प्रमाण पांच हजार तीन सौ पांच योजन और चौदह कला अधिक है ॥ २७१ ॥ ५३०५६४ ।
( बाह्य पथपरिधि ३१८३१४ ६० = ५३०५१४ ) ___ सूर्यके नगरतलसे चार प्रमाणांगुल नीचे जाकर अरिष्ट विमानोंके ध्वजदण्ड होते हैं ॥ २७२ ॥
अरिष्ट रत्नोंसे निर्मित केतुओंके नगरतल अंजनवर्ण होते हैं । इनमेंसे प्रत्येक कुछ कम एक योजन प्रमाण विस्तारसे संयुक्त होता है ॥ २७३ ॥
उन सुरम्य नगरोंमेंसे प्रत्येकका बाहल्यप्रमाण दो सौ पचास धनुष होता है ॥२७॥
२५० ।
१द मग्गति; ब मग्गातिं. २द ब २५६. ३ द ब तं तं णयराणं.
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