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त्रिलोकप्रज्ञप्तिको प्रस्तावना ___ तुलना कीजिये भगवती आराधना (शोलापुर संस्करण ) ८८६-८७, ९१६, ९२२; १५८३ का ति. प. ४, ६२८-६२९, ६३४, ६३५, ६१८ तथा ८८८-८९, ९०४, ९३५ का ति. प. ४,६२९, ६३०, ६३६ से।
जोइंदुकृत परमात्मप्रकाश अपभ्रंश भाषाकी रचना है ( बम्बई १९३७ ) । इसका एक पर २,६०, अन्य भाषामें है । तथापि परमात्मप्रकाशमें उसकी स्थिति पर्याप्त प्रामाणिक है। इसके अन्तिम पादको छेड़कर शेष सब ति. प. ९-५२ से मिलता है। संभव है जोइंदुने स्वयं उसे उद्धृत किया है। और अपनी रचनासे मेल मिलानेके लिये उसके अन्तिम चरणमें उत्तम पुरुषका निर्देश कर दिया है।।
ति. प. १-९५ का गोम्मट सार - जीवाड (बम्बई १९१६) ६०३ से मिलान कीजिये। उसी प्रकार ति. प. ३,१८०-८१, ४.२९५२, ८-६८५ आदिका जीवकाण्ड ४२६-२७ ८२, ४२९ आदि । (विशेषावश्यक भाष्य ६९५ भी)। ति. प. ३-९, ४-२२०६; ६,४२.४४, ४८-१९, ७-५३०, ८-५६६ का त्रिलोकसार २०९, ६८७, २६५-६७, २७१-७२, ४११, ५३१ से । उसी प्रकार ति. प. ३.३८, ४-२५९८ (२८१८ भी) ६,३८-४१ का त्रिलोकसार २१५, ७६१, २६१-६३ से।
__ माघनन्दिने शास्त्रसारसमुच्चयके सूत्रोंपर एक विस्तृत टीका कनाड़ीमें लिखी है (बेलगांव १९१६) इस ग्रंथमें विना नामोल्लेखके अनेक ग्रंथों के अवतरण दिये गये हैं। प्राकृतके अवतरण बहुत ही अशुद्ध छपे हैं । सामान्य अवलोकनसे ही निम्न अवतरण ति. प.के दृष्टिमें आये हैं-ति. प. १,१६१४-२३ (पृ. ७-८); १५००-१ (पृ. २८); १५३४, १५४४ (पृ. ३०); ५२२. २५ (पृ. ३२) ५५०, ६४२, ६४३ (पृ. ३५); ६७५.७८ (पृ. ३७.८); ९०१-३, ९०५, ९२९ (पृ. ४६); १४७२-७३ (पृ. ५६) ८-१६८ (पृ. १०७). शास्त्रप्तारसमुच्चय टीका गाथाएं इतनी अशुद्ध छपी हैं कि उनकी ति. प. की गाथाओंके साथ एकताका पता कठिनाईसे चल पाता है।
३ ग्रंथकार यतिवृषभ त्रिलोकप्रज्ञप्तिके ग्रंथकर्तृत्व और कालनिर्णयके सम्बन्धे अनेक विद्वान् विवेचन कर चुके हैं। संभव है इस विषयकी हमारी लेखसूची पूर्ण न हो। तथापि जहां तक हमें ज्ञात हो सका है, इस विषयपर हिंदीमें लिखे गये निबन्ध निम्न प्रकार हैं और उनका हमने प्रस्तावनामें उपयोग भी किया है। -
१. पं. नाथूरामजी प्रेमी द्वारा लिखित 'लोकविभाग और तिलोयपण्णत्ति " ( जैन हितैषी १९१०, जैन साहित्य और इतिहास, बम्बई १९६२ पृ. १-२२)।
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