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________________ ग्रंथकी कुछ विशेषतायें और तुलना तिलोयपण्णत्तिकारके सम्मुख अनेक मत-मतान्तर थे और उन्होंने उन्हें यथावत् प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है । पालक, पुष्यमित्र, वसुमित्र, अग्निमित्र, गन्धर्व, नरवाहन व कल्कि-आदि राजाओंके उल्लेख इतिहासोपयोगी हैं । विविध क्षेत्रों एवं वहांकी नदियों, पर्वतों और मनुष्योंका वर्णन आजक भूगोलके विद्यार्थीके लिये भले ही अधिक उपयोगी न हो, किन्तु जैन साहित्यकी पृष्ठभूमिको समुचित रूपसे समझनेके लिये इन बातोंका सावधानी पूर्वक अध्ययन आवश्यक है, क्योंकि जैन लेखक तो इन्हीं बातोंमें पगे हुए थे । यही बात आकाश तथा ज्योतिष सम्बन्धी विवरणों के लिये समझना चाहिये । सिद्धोंका वर्णन, आत्मचिन्तनके उपाय आदि (अन्तिम महाधिकारमें ) जैन विचारधारांकी प्राचीन सम्पत्ति है । इसी प्रकारक विचार, समान शब्दावलीमें, प्राकृत सिद्धभक्ति, ओवाइयंके अन्तिम पद्यों तथा कुन्दकुन्दके अनेक ग्रंथोंमें भी पाये जाते हैं । केवल विषयनिरूपणमें ही नहीं, किन्तु पद्योंकी शब्दरचनामें भी ति. प. अन्य अनेक ग्रंथोंसे समानता रखती है। इनमेंकी अनेक तो प्राचीन परम्परागत गाथाएं ही हैं जिन्हें भिन्न भिन्न ग्रंथकारोंने अपनी रचनाओंमें सम्मिलित किया है । उनमेंसे कुछ ग्रंथ ति. प. से पुराने और कुछ पीछेके हैं, अतएव जहां समानता विशेष है वहां आदान-प्रदानकी संभावना भी हो सकती है। इस दिशामें यहां कुछ प्रयत्न किया जाता है, और यह विश्वास है कि दूसरे विद्वान् इस प्रकारकी अनेक समान गाथाओंकी खोज कर सकेंगे । ये गाथाएं दो मुख्य भागोंमें विभाजित होती हैं । एक तो वे गाथाएं जो कुछ पाठभेद लिये हुए समानता रखती हैं, और दूसरी वे जो प्रायः या अंशतः विषयसाम्यको लिये हुए हैं। तुलना कीजिये मूलाचार ( बम्बई सं. १९७७-८०) ५,३४ ( अन्तिम पादमें कुछ भेद है) १२,८१.८२ का ति. प, १-९५, ७,६१४-१५ से। मूलाचार १२, ३७.४०,६२, १०७.८, ११५, १३६-३७, १५० का ति. प. ५,२८-३१, ४.२९५२, ८,६८५-८६; २-२९० ८,६८०-८१, ३-१८६ से । तुलना कीजिये पंचास्तिकाय (बम्बई १९१५) ७५, १४६, १५२ का ति. प. १.९५%, ९,२०-२१ से । प्रवचनसार (बम्बई १९३५) १-१, ९, ११, १२, १३, १७, २.६९. ७०, १०३ का ति. प. ९-७३, ५६, ५७, ५८, ५९, ५४, २९, ३०, ५० से। प्रवचनसार १.५२, २.५४, ३-६८, ९९ (३, ४ भी), १०२, १०४, ३.३९ का ति. प. ९-६५, २-२७७, ९.२८, ३४, ३३, १९, ३७ का । समयसार (बम्बई १९१९) १११, ३८, ६९, १५४ का ति. प. ९.२३, २४, ६३, ५३. से व समयसार १९, ३६, १८८, ३०६ का ति. प. ९.४३, २५, ४७, ४९ से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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