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१६८ तिलोयपण्णत्ती
[७.८०सौलससहस्समैत्ता अभिजोगसुरा हवंति पत्तेक्कं । दिणयरणयरतलाई विकिरियाहारिणो' णिच्च ॥ ८०
१६०००। ते पुवादिदिसासु केसरिकरिवसहजडिलहयरूवा । चउचउसहस्समेत्ता कंचणवण्णा विराजते ॥ ८१ चित्तोवरिमतलादो गंतूणं जोयणाणि अट्ठसए । अडसीदिजुदे गहगणपुरीओ दोगुणिदछक्कबहलम्मि ॥ ८२
८८८।१२। चित्तोवरिमतलादो पुचोदिदजोयणाणि गंतूणं । तासु बुहणयरीभो णिच्च चेटुंति गयणम्मि ॥ ८३ एदाओ सव्वाओ कणयमईओय मंदकिरणाओ। उत्ताणावहिदगोलयद्धसरिसाओ णिचाओ ।। ८४ उवरिमतलाण रुंदं कोसस्सद्धं तदद्धबहलत्तं । परिही दिवट्टकोसो सविसेसा ताण पत्तेकं ।। ८५ एकेकाए पुरीए तडवेदी पुचवण्णणा होदि । तम्मज्झे वरवेदीजुत्तं रायंगणं रम्मं ॥ ८६
प्रत्येक सूर्यके सोलह हजार प्रमाण आभियोग्य देव होते हैं जो नित्य ही विक्रिया करके सूर्यनगरतलोंको ले जाते हैं ॥ ८० ॥ १६००० ।
सिंह, हाथी, बैल और जटायुक्त घोड़ेके रूपको धारण करनेवाले तथा सुवर्णके समान वर्णसे संयुक्त वे आभियोग्य देव क्रमसे पूर्वादिक दिशाओंमें चार चार हजार प्रमाण विराजमान होते हैं ॥ ८१ ॥
चित्रा पृथिवीके उपरिम तलसे आठ सौ अठासी योजन ऊपर जाकर दुगुणित छह अर्थात् बारह योजनमात्र बाहल्यमें ग्रहसमूहकी नगरियां हैं ॥ ८२ ॥ ८८८ । १२ ।
__उनमेंसे चित्रा पृथिवीके उपरिमतलसे पूर्वोक्त आठसौ अठासी योजन ऊपर जाकर आकाशमें बुधकी नगरियां नित्य स्थित हैं ॥ ८३ ॥
ये सब नगरियां सुवर्णमयी, मन्द किरणोंसे संयुक्त, नित्य और ऊर्ध्व अवस्थित अर्थ गोलकके सदृश हैं ॥ ८४ ॥
.. उनमेंसे प्रत्येकके उपरिम तलका विस्तार आध कोश, बाहल्य इससे आधा, और परिधि डेढ कोशसे अधिक होती है ॥ ८५ ॥
हर एक पुरीकी तटवेदी पूर्वोक्त वर्णनासे युक्त होती है । उसके बीचमें उत्तम वेदीसे संयुक्त रमणीय राजांगण स्थित रहता है ॥ ८६॥
१द व कारिणो.
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