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________________ ६६६] तिलोयपण्णत्ती [७. ६४चउच्चउसहस्समेत्ता पुवादिदिसासु कुंदसंकासा । केसरिकरिवसहाणं जडिलतुरंगाण स्वधरा' ॥ ६४ चित्तोवरिमतलादो उवरि गंतूण जायणट्ठसए । दिण यरणयरतलाई णिच्चं चेटुंति गयणम्मि ॥ ६५ । ८००। उत्ताणावट्रिदगोलयद्धसरिसाणि रविमणिमयाणिं । ताणं पुह पुह बारससहस्सउण्यरकिरणाणि ॥ ६६ ।१२००० । तेसु ठिदपुढविजीवा जुत्ता आदावकम्मउदएणं । जम्हा तम्हा तागि फुरंतउण्हयरकिरणाणि ॥ ६७ इगिसट्टियभागकदे जोयणए ताण होति अडदालं । उवरिमतलाण रुंदं तलद्धबहल पि पत्तेकं ॥ ६८ एदाणं परिहीओ पुह पुह बे जोयणाणि भदिरेगा। ताणिं अकहिमाणिं अणाइणिहणाणि बिंबाणिं ॥ ६९ पत्तेकं तडवेदी चउगोउरदारसुंदरा ताणं । तम्मज्झे वरवेदीसहिदं रायंगणं होदि ॥ ७० इनमेंसे सिंह, हाथी, बैल और जटा युक्त घोड़ोंके रूपको धारण करनेवाले तथा कुन्द. पुष्पके सदृश सफेद चार चार हजार प्रमाण देव क्रमसे पूर्वादिक दिशाओंमें चन्द्रबिम्बोंको वहन करते हैं ॥ ६४ ॥ __चित्रा पृथिवीके उपरिम तलसे ऊपर आठ सौ योजन जाकर आकाशमें नित्य सूर्यनगरतल स्थित हैं ॥ ६५॥ ८०० । सूर्योके मणिमय विम्ब ऊर्ध्व अवस्थित अर्ध गोलकके सदृश हैं। इनकी पृथक् पृथक् बारह हजारप्रमाण उष्णतर किरणें होती हैं ॥ ६६ ॥ १२००० । चूंकि उनमें स्थित पृथिवी जीव आताप नामकर्मके उदयसे संयुक्त होते हैं, इसीलिये वे प्रकाशमान उष्णतर किरणोंसे युक्त होते हैं ।। ६७ ॥ एक योजनके इकसठ भाग करनेपर अड़तालीस भागप्रमाण उनमें से प्रत्येक सूर्यके बिम्बके उपरिम तलोंका विस्तार और तलोंसे आधा बाहल्य भी होता है ।। ६८॥ ६६।३।। इनकी परिधियां पृथक् पृथक् दो योजनसे अधिक होती हैं । वे सूर्यविम्ब अकृत्रिम एवं अनादिनिधन हैं ॥ ६९ ॥ उनमेंसे प्रत्येककी तटवेदी चार गोपुरद्वारोंसे सुन्दर होती है। उसके बीचमें उत्तम वेदीसे संयुक्त राजांगण होता है ॥ ७० ॥ १द ब रूववरा. २दब गोलद्ध. ३द एक्कस्सट्ठिय, ब एक्करसतिय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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