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________________ ६६४] तिलोयपण्णत्ती [७. ४७छत्तत्तयसिंहासणभामंडल चामरेहिं जुत्ताई । जिणपडिमाओ तेसु रयणमईमो विराजति ॥ ४७ सिरिदेवी सुददेवी सम्वाण सणक्कुमारजक्खाणं' । स्वाणि मणहराणि रेहति जिणिंदपासेसु ॥ ४८ जलगंधकुसुमतंदुलवरभक्खप्पदीवधूवफलपुण्णं । कुवंति ताण पुज्ज णिभरभत्तीए सम्बसुरा ।। ४९ एदाणं कूडाणं समंतदो होंति चंदपासादा । समचउरस्सा दीहा णाणाविण्णासरमाणिज्जा ॥ ५० मरगयवण्णा केई केई कुंदेंदुहारहिमवण्णा । अण्णे सुवण्णवण्णा अवरे वि पवालणिहवण्णा ।। ५१ उववादमंदिराई अभिसेय पुराणि भूसणगिहाणि । मेहुणकीडणसालामो मंतभत्थाणसालाओ ॥ ५२ ते सव्वे पासादा वरपायारा विचित्तगोउरया । मणितोरणरमाणिज्जा जुत्ता बहुचित्तभित्तीहि ॥ ५३ उववणपोक्खरणीहि विराजमाणा विचित्तरूवाहिं । कणयमयविउलथंभा सयणासणपहुदिपुण्णाणि ॥ ५४ सुखरलरूवगंधप्पासेहि गिरुवमेहिं सोक्खाणिं । देति विविहाणि दिव्वा पासादा धूवगंधड्ढा ॥ ५५ उन जिनभवनों में तीन छत्र, सिंहासन, भामण्डल और चामरोंसे संयुक्त रत्नमयी जिनप्रतिमायें विराजमान हैं ॥ ४७ ॥ जिनेन्द्रप्रासादोंमें श्रीदेवी, श्रुतदेवी और सब सनत्कुमार यक्षोंकी मनोहर मूर्तियां शोभायमान होती हैं ॥ ४८ ॥ सब देव गाढ़ भक्तिसे जल, गन्ध, फूल, तन्दुल, उत्तम भक्ष्य ( नैवेद्य ), दीप, धूप और फलोंसे परिपूर्ण उनकी पूजा करते हैं ॥ ४९ ॥ इन कूटोंके चारों ओर समचतुष्कोण लंबे और नाना प्रकारके विन्याससे रमणीय चन्द्रोंके प्रासाद होते हैं ॥ ५०॥ ___ इनमेंसे कितने ही प्रासाद मरकतवर्ण, कितने ही कुन्दपुष्प, चन्द्र, हार एवं वर्फ जैसे वर्णवाले; कोई सुवर्णके समान वर्णवाले और दूसरे मूंगेके सदृश वर्णसे सहित हैं ॥ ५१ ॥ इन भवनोंमें उपपादमन्दिर, अभिषेकपुर, भूषणगृह, भैथुनशाला, क्रीडाशाला, मंत्रशाला और आस्थानशालायें ( सभाभवन ) स्थित रहती हैं ॥ ५२ ॥ वे सब प्रासाद उत्तम कोटोंसे सहित, विचित्र गोपुरोंसे संयुक्त, मणिमय तोरणोंसे रमणीय, बहुत प्रकारके चित्रोंवाली दीवालोंसे युक्त, विचित्र रूपवाली उपवन-वापिकाओंसे विराजमान, सुवर्णमय विशाल खम्भोंसे सहित और शयनासन आदिसे परिपूर्ण हैं ॥ ५३-५४॥ ये दिव्य प्रासाद धूपके गन्धसे व्याप्त होते हुए अनुपम एवं शुद्ध रस, रूप, गन्ध और स्पर्शसे विविध प्रकारके सुखोंको देते हैं ॥ ५५॥ १द रज्जाणं. २दब भित्तीओ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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