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-७. ४६] सत्तमो महाधियारो
[६६३ . एक्कट्टियभागकदे जोयणए ताण होदि छप्पण्णा ! उवरिमतलाण रुंदं दलिदैद्धबद्दलं पि पत्तेक्कं ॥ ३९
एदाणं परिहीओ पुह पुह बे जोयगाणि अदिरेको । ताणिं अकिहिमाणिं अणाइणिहणाणि बिंबाणि॥ ४० चउगोउरसंजुत्ता तडवेदी तेसु होदि पत्तेवकं । तम्मझे वरवेदीसहिद रायंगणं रम् ॥ ४१ रायंगणबहुमज्झे वररयणमयाणि दिव्यकूडाणिं । कूडेसु जिणपुराणि वेदीचउतोरणजुदाइं ॥ ४२ ते सव्वे जिगणिलया मुत्ताहलकण यदामकमाणिज्जा । वरवज्जकवाडजुदा दिव्वविदाणेहिं रेहति ॥ ४३ दिप्तरयणदीवा अट्टमहामंगले हिं परिपुण्णा । वंदणमालाचामरकिंकिणियाजालसोहिल्ला ॥ ४४ एदेसुं णट्टसभा अभिसेयसभा विचित्तरयणमई । कीडणसाला विविहा ठाणहाणेसु सोहंति ॥ ४५ मद्दलमुइंगपडहप्पहदीहिं विविहादिवतुरेहिं । उवसिरिच्छरवेहिं जिणगेहा णिच्चहलबोला ॥ ४६
एक योजनके इकसठ भाग करनेपर छप्पन भागप्रमाण उन चन्द्रविमानोंमेंसे प्रत्येकके उपरिम तल का विस्तार व इससे आधा बाहल्य है ॥ ३९ ॥ ६६।।।
इनकी परिधियां पृथक् पृथक् दो योजनसे कुछ अधिक हैं। वे विम्ब अकृत्रिम व अनादिनिधन हैं ॥ ४० ॥
उनमेंसे प्रत्येककी तटवेदी चार गोपुरोंसे संयुक्त होती है । उसके बीचमें उत्तम वेदी सहित रमणीय राजांगण होता है ॥ ४१ ॥
राजांगणके ठीक बीचमें उत्तम रत्नमय दिव्य कूट और उन कूटोंपर वेदी व चार तोरणोंसे संयुक्त जिनपुर होते हैं ॥ ४२ ॥
__ वे सब जिनभवन मोती व सुवर्णकी मालाओंसे रमणीय और उत्तम वज्रमय किवाड़ोंसे संयुक्त होते हुए दिव्य चन्दोंबोंसे सुशोभित रहते हैं ॥ ४३ ॥
ये जिनभवन देदीप्यमान रत्नदीपकोसे सहित, अष्ट महामंगल द्रव्योंसे परिपूर्ण और वन्दनमाला, चंवर व क्षुद्र घंटिकाओके समूहसे शोभायमान होते हैं ॥ ४४ ॥
इन जिनभवनों में स्थान स्थानपर विचित्र रत्नोंसे निर्मित नाट्यसभा, अभिषेकसभा और विविध प्रकारकी क्रीडाशालायें सुशोभित होती हैं ॥ ४५ ॥
वे जिनभवन समुद्र के समान गम्भीर शब्द करनेवाले मर्दल, मृदंग और पटह आदि विविध प्रकारके दिव्य वादित्रोंसे नित्य शब्दायमान रहते हैं ॥ ४६ ॥
१ द व दलदद्ध'.
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