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थकी कुछ विशेषतायें और तुलना
( ३ )
की जा सकती जब तक और बहुतसी प्राचीन प्रतियों का मिलान न कर लिया जाय, तथापि त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी रूपरेखा और विषयप्रतिपादन में एक ही कर्ताका हाथ दिखाई देता है । ग्रंथके आदिम स्पष्ट I उल्लेख के पश्चात् पूरी रचना नौ महाधिकारोंमें विभक्त की गई है, जिनमें से प्रत्येक पुनः अन्तरराधिकारों में विभाजित हैं जिनका निर्देश प्रारम्भमें ही कर दिया गया है । इस प्रकार समस्त ग्रंथ में एक योजना पाई जाती है । कहीं कहीं पश्चात् के अधिकार में उपयोगी वस्तुविवरण के लिये पूर्वके किसी अधिकारका उल्लेख किया गया है ( ६, १०१ ) । कहीं हमें ऐसे निर्देश मिल जाते हैं'पुव्वं व वत्तव्वं ' ( पहले के समान कथन करना चाहिये – ४, २६१, २७४ आदि ) । इससे स्पष्ट है कि ग्रंथकर्ता लगातार विषयका प्रतिपादन कर रहा है । आदिमंगलमें पंचपरमेष्ठीको नमस्कारादि किया गया है, किन्तु सिद्धोंको प्रथम और अरहन्तको तत्पश्चात् । फिर प्रथम महाधिकारके अन्तसे प्रारंभके प्रत्येक महाधिकारके आदि और अन्तमें क्रमशः एक एक तीर्थंकर को नमस्कार किया गया है - जैसे १ नाभेय, २ अजित व संभव, ३ अभिनन्दन व सुमति, ४ पद्यप्रभ व सुपा ५ चन्द्रप्रभ व पुष्पदन्त, ६ शीतल व श्रेयांस, ७ वासुपूज्य व विमल, ८ अनन्त व धर्म तथा ९ शान्ति व कुन्थु । फिर शेष अरसे वर्धमानान्त तीर्थंकरोंको अन्तिम महाधिकारके अन्तमें नमस्कार किया गया है ( ९, ६७-७३ ) । इन नमस्कारात्मक पद्योंकी व्यवस्था व स्थानों में न केवल एक सुयोजना ही है किन्तु उनमें एक ही कर्ताका हाथ स्पष्ट दिखाई देता है । २ ग्रंथकी कुछ विशेषतायें और तुलना
यहां पर तिलोयपण्णत्ति जैसे अति प्रामाणिक और प्राचीन ग्रंथके विषयकी कुछ महत्त्वपूर्ण बातों पर ध्यान दे लेना अच्छा होगा | यह ग्रंथ मुख्यतः करणानुयोगका है जिसमें तीनों लोकोंके सम्बन्धकी समस्त ज्ञात बातोंका विवरण है । इस विशाल रचनामें अनेक रोचक वार्ताओं सम्बन्धी परिच्छेद भी सम्मिलित हो गये हैं जिनका जैन सिद्धान्त और साहित्यके अध्येताको पूर्वापर कालीन समानताओंकी खोज करके तुलनात्मक अध्ययन करना पड़ता है । परम्परागत विषयोंकी विवरणात्मक रचना होनेसे ति. १. में ऐसे ग्रंथोंसे समानतायें पाई जा सकती हैं जो उससे प्राचीन या अर्वाचीन होते हुए भी उनसे उसके प्रत्यक्ष आदान-प्रदानका कोई सम्बन्ध नहीं है । ऐसी अवस्था में तद्गत विषयों का तुलनात्मक अध्ययन तो किया जा सकता है, किन्तु उनके पूर्वापर कालीनत्व तथा परस्पर आदान-प्रदानका निर्णय स्वतंत्र रूपसे किया जाना चाहिये । जहां तक करणानुयोगकी सामग्री ( तत्संबंधी विवरण एवं गणितात्मक करणसूत्रों आदि सहित ) का संबंध है, ति. प. का विषय अर्धमागधी आगमकी सूर्यप्रज्ञप्ति ( बम्बई १९१९), चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ( बम्बई १९२०) तथा संस्कृत प्राकृतके अन्य प्राचीन अर्वाचीन ग्रंथोंजैसे लोकविभाग, तत्त्वार्थराजवार्तिक, धवला - जयधवला टीका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति संग्रह (इं. हि. का. भाग १४ पृ. १८८ आदि) त्रिलोकसार (बम्बई १९१७) और त्रिलोकदीपिका (ह. लि.) से बहुत कुछ
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