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त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना
स्पष्ट निर्देश नहीं पाया जाता; संभवतः उनके नाम छूट गये हैं । उदाहरणार्थ ११-१२ आदि । इसकी गाथासंख्या ७०३ है जिनमें केवल १ शार्दूलविक्रीडित ( ७०२ ) है और शेष गाथा । कुछ गद्यखंड भी हैं। नौवें अन्तिम महाधिकारमें ५ अधिकार व ७७ पद्य हैं जिनमें १ मालिनी ( ७४ ) और शेष गाथा रूप हैं ।
ग्रंथका सम्पादन केवल थोड़ीसी हस्तलिखित प्राचीन प्रतियोंपर से किया गया है। सम्पादकोंने ऐसे स्थल भी पाये हैं जहां प्रस्तुत पाठ में उन्हें स्खलन दिखाई देते हैं । कुछ पाठ अत्यधिक भ्रष्ट हैं, यद्यपि सामान्यतः उनका अर्थ अनुमान करना कठिन नहीं है । कहीं कहीं पंक्तियां छूटी हुई हैं (जैसे पृष्ठ ३३, २२८ - २९, ४४२, ४४८, ४८९, ५७१, ५७६, ६२७-२८, ६३० आदि ) । संख्यात्मक निरूपणों में अशुद्धियां हैं और बहुधा वे स्थानान्तरित भी हो गये हैं (पृ. ६०, ६४ आदि ) । अधिकारों के नाम सर्वत्र विधिवत् नहीं मिलते। और कहीं कहीं तो वे स्पष्टतः छूटे हुये दिखाई देते है ( देखिये महाधिकार ८ ) । फिर भी उपलब्ध सामग्री - की सीमा के भीतर प्रस्तुत पाठ प्रामाणिक कहा जा सकता है, और यदि आगे ग्रंथकी कुछ और प्राचीन प्रतियां मिल सकीं व उनसे प्रस्तुत पाठका मिलान किया जा सका, तो भविष्य में उक्त त्रुटियां भी दूर की जा सकती हैं।
अशुद्ध प्रतियोंकी परम्परा से उत्पन्न उपर्युक्त त्रुटियों के होते हुये भी त्रिलोकप्रज्ञप्ति सामान्यतः पर्याप्त प्राचीन परम्परापर निर्धारित है, और उसमें सामान्यतः एक ही रचियता के हाथकी एकरूपता दिखाई देती है । प्रत्येक महाधिकार के अन्तमें ग्रंथकर्तीने स्पष्टतः उल्लेख किया है कि त्रिलोकप्रज्ञप्तिके विषयका ज्ञान उन्हें आचार्य परम्परासे प्राप्त हुआ है । कहीं कहीं
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' गुरूपदेश' का भी उल्लेख है; जैसे ७-११३,१६२ ) । उन्होंने प्राचीन ग्रंथों और उनके पाठान्तरों का भी उल्लेख किया है । जैसे- आग्रायणी, परिकर्म, लोकविभाग और लोकविनिश्चय । ये ग्रंथ अब हमें उपलभ्य नहीं हैं। उन्होंने अनेक स्थलों (कोई पच्चीससे भी अधिक ) पर यह भी स्वीकार किया है कि अमुक विषयका विवरण और उपदेश उन्हें परम्परासे गुरुद्वारा प्राप्त नहीं हुआ या नष्ट हो गया । समस्त ग्रंथके भीतर पाठकको यह अनुभव होता है कि लोकविज्ञान जैसा दुर्गम विषय उसके गणित आदि सहित भिन्न भिन्न आचार्यपरम्पराओंमें अध्ययन किया जाता था और इन परम्पराओंमें कुछ विषयोंपर परस्पर मतभेद भी था । ग्रंथ में चालीससे भी अधिक ऐसे स्थल हैं जहां हमें पाठान्तर रूप गाथाएं प्राप्त होती हैं और कहीं कहीं ' अथवा ' शब्द के द्वारा मतभेदों का निर्देश किया गया है, जैसे- पृ. ५१, ७१ । ग्रंथकर्ताका प्रयोजन यही रहा है कि जहां तक हो सके परम्परागत ज्ञानको यथाशक्ति शुद्ध और पूर्णरूपसे सुरक्षित
रखा जाय ।
यद्यपि विद्वान् पाठकों व लेखकों द्वारा स्खलनों व क्षेपकों की सम्भावना तो तब तक दूर नहीं
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