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________________ -५. २४४] पंचमो महाधियारो जोयणेहिं पुचिल्लदोणिरासीहि परिहीणं होदि । तस्स ठवणा =९ धण रज्जू। ११२५०० रिण जोयणाणि १६८७५००००००। एत्तो दीवरयणायरानं एऊणवीसवियप्पं अप्पाबहुअं वत्तइस्सामो। तं जहा पढमपक्खे जंबूदीवसयलरुंदादो लवणणीररासिस्स एयदिसरुंदम्मि बड्डी गवेसिजइ। जंबूदीवलवणसमुदादो धादइसंडस्स । एवं सन्चभंतरिमदीवरयणायराणं एयदिसरुंदादो तदणंतरबाहिरणिविट्ठ- ५ दीवस्स वा तरंगिणीरमणस्स वा एयदिसरुंदवड्डी गवेसिज्जइ। बिदियपक्खे जंबूदीवस्सद्धादो लवणणिण्णगाणाहस्स एयदिसरुंदम्मि वडी गवेसिज्जइ । तदो जंबूदीवस्सद्धम्मि सम्मिलिदलवणसमुद्दादो धादइसंडस्स । एवं सबभंतरिमदीवउवहीणं एयदिसलंदादो. तदणंतरबाहिरणिविट्ठदीवस्स वा तरंगिणीरमणस्स वा एयदिसरुंदम्मि वड्डी गवेसिज्जइ । तदियपक्खे इच्छियसलिलरासिस्प एयदिसलंदादो तदणंतरतरंगिणीणाहस्स एयदिसरंदम्मि १० वड्डी गवेसिजइ । करनेपर जो शेष रहे उतना स्वयंभूरमण समुद्रका क्षेत्रफल है। उसकी स्थापना- ७५७४९+ ७८४ + राजु १ ४ ११२५००-(रिण) १६८७५०००००० योजन । (स्वयंभूरमण समुद्रका प्रकारान्तरसे क्षेत्रफल लानेके लिये देखो षटखंडागम १, ४, २५ - भा. ४, पृ. १९८). अब यहांसे उन्नीस विकल्पों द्वारा द्वीपसमुद्रोंके अल्पबहुत्वको कहते हैं। वह इस . प्रकार है _प्रथम पक्षमें जम्बूद्वीपके सम्पूर्ण विस्तारकी अपेक्षा लवणसमुद्रके एक दिशासम्बन्धी विस्तारमें वृद्धिका प्रमाण खोजा जाता है । जम्बूद्वीप और लवणसमुद्रके सम्मिलित विस्तारकी अपेक्षा धातकीखण्डके विस्तारमें वृद्धिका प्रमाण मालूम किया जाता है । इस प्रकार समस्त अभ्यन्तर द्वीप-समुद्रोंके एक दिशासम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा उनके अनन्तर बाह्य भागमें स्थित द्वीप अथवा समुद्रके एक दिशासम्बन्धी विस्तारमें वृद्धिके प्रमाणको मालूम किया जाता है। द्वितीय पक्षमें जम्बूद्वीपके अर्धविस्तारसे लवणसमुद्रके एक दिशासम्बन्धी विस्तारमें वृद्धिकी गवेषणा की जाती है। पश्चात् जम्बूद्वीपके अर्थ विस्तारमें लवणसमुद्रके विस्तारको मिलाकर इस सम्मिलित विस्तारकी अपेक्षा धातकीखण्डद्वीपके विस्तारमें वृद्धिकी गवेषणा की जाती है। इस प्रकार सम्पूर्ण अभ्यन्तर द्वीप-समुद्रोंके एक दिशासम्बन्धी विस्तारसे उनके अनन्तर बाह्य भागमें स्थित द्वीप अथवा समुद्रके एक दिशासम्बन्धी विस्तारमें वृद्धिकी गवेषणा की जाती है। तृतीय पक्षमें अभीष्ट समुद्रके एक दिशासम्बधी विस्तारसे उसके अनन्तर स्थित समुद्र के एक दिशासम्बन्धी विस्तारमें वृद्धिकी गवेषणा की जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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