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तिलोय पण्णत्ती
[ ५. २२२
सत्तसरमहुरंगीयं गायंता पलद्दवंसपहुदीणि । चायंता णच्चंता' विजयं रंजति तत्थ सुरा ॥ २२२ रायंगणस्स बाहिर परिवारसुराण होंति पासादा । विष्फुरिदधयवडाया वररयणजोइअधियंता ॥ २२३ बहुविहरइकरणेहिं कुसलाओ णिच्चजोब्वणजुदाओ । णाणाविगुब्वणाओ मायालोहादिरहिदाओ ॥ २२४ उल्लसिदविब्भमाओ चितसहीवेण पेम्मवंताओ । सच्चाओ देवीओ लग्गते विजयदेवस्स ॥ २२५ नियणयराणि णिविट्ठा देवा सच्वे वि विषयसंपुण्णा । णिज्भरभत्तिपसत्ता सेवते विजय मणवरदं ॥ २२६ तणरीए बाहिर गंतूगं जोयणाणि पणवीसं । चत्तारो वणसंडा पत्तेक्कं चेत्ततरुजुत्ता ॥ २२७ होंति
हु वाणि वाणि दिव्वाणि अलोयलत्तवण्णाणं । चंपयचूदवणा तह पुन्वादिपदाहिणकमेणं ॥ २२८ बारससइस्सजोयणदीहा ते होंति पंचसयरुंदा । पत्तेक्कं वणसंडा बहुविहरुक्खेहिं परिपुण्णा ॥ २२९
१२००० | ५०० ।
वहां देव सात स्वरोंसे परिपूर्ण मधुर गीतको गाते और पटह एवं बांसुरी आदिक बाजोंको बजाते व नाचते हुए विजयका मनोरंजन करते हैं ॥ २२२ ॥
राजांगणसे बाहिर फहराती हुई ध्वजापताकाओं से सहित और उत्तम रत्नों की ज्योतिसे अधिक रमणीय परिवारदेवोंके प्रासाद हैं ।। २२३ ॥
जो बहुत प्रकारकी रतिके करनेमें कुशल हैं, नित्य यौवनसे युक्त हैं, नाना प्रकारकी विक्रियाको करती हैं, माया एवं लोभादिसे रहित हैं, उल्लासयुक्त विलास सहित हैं, और स्वभावसे ही प्रेम करनेवाली हैं ऐसी समस्त देवियां विजयदेवकी सेवा करती हैं ।। २२४-२२५ ।।
अपने नगरोंमें रहनेवाले सब ही देव विनयसे परिपूर्ण ओर अतिशय भक्ति में आसक्त होकर निरन्तर विजयदेवकी सेवा करते हैं ।। २२६ ॥
उस नगरी बाहिर पच्चीस योजन जाकर चार वनखण्ड स्थित हैं, जो प्रत्येक चैत्यवृक्षों से संयुक्त हैं ॥ २२७ ॥
अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र वृक्षों के ये वन पूर्वादिक दिशाओं में प्रदक्षिणक्रमसे हैं ॥ २२८ ॥
बहुत प्रकारके वृक्षोंसे परिपूर्ण वे प्रत्येक वनखण्ड बारह हजार योजन लंबे और पांच सौ योजन चौड़े हैं ॥ २२९ ॥ दीर्घ १२००० | विस्तीर्ण ५०० यो.
१ द व णं चित्ता. २ द ब च्छित्तसहावे.
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३ द व ताणं.
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