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________________ -५. २३६ ] पंचमो महाधियारो [ ५५९ देसुं चेतदुमा भावणचेत्तप्पमाणसारिच्छा । ताणं चउसु दिसासुं चउचउजिणणाहपडिमाभो || २३० देवासुरमहिदाओ सपाडिहेराओ' रयणमइयाओ । पलंक असणाओ जिनिंदपडिमाओ विजयंते ॥ २३१ चेत्तदुमस्सीसाणे भागे चेट्ठेदि दिव्वपासावो । इगितीसजोयणाणि कोसम्भहियाणि वित्थिण्णी ॥ २३२ ३१ । को १ | यासाहि गुणउदओदुकोस गाढा विचित्तमणिखंभो । चड भट्टजोयणाणि दुच्छेद्दा दुई तद्दारे || २३३ ६२ । को २ | ४ | ८ सुजलंतरयणदीमो विचित्तरायणासणेहिं परिपुण्णो । सहरसरूवगंधप्पासेहिं सुरमणाम्मो ॥ २३४ कणयमयकुङ्कुचिरचिदविचित्तचित्तप्पबंधर मणिज्जो | अच्छरियजणणरूवो किं बहुणा सो णिरुवमाणो ॥ २३५ तस्सि असोयदेओ रमेदि देवी सहस्तसंजुत्तो । वररयणमउडधारी चामरछत्तादिसोहिल्लो || २३६ इन वनोंमें भावनलोकके चैत्यवृक्षों के प्रमाणसे सदृश जो चैत्यवृक्ष स्थित हैं उनकी चारों दिशाओं में चार जिनेन्द्रप्रतिमायें हैं ॥ २३० ॥ देव व असुरोंसे पूजित, प्रातिहार्यंसि सहित, और पद्मासनसे स्थित वे रत्नमय जिनेन्द्रप्रतिमायें जयवंत हैं ॥ २३१ ॥ प्रत्येक चैत्यवृक्ष के ईशान दिशाभाग में एक कोश अधिक इकतीस योजनप्रमाण विस्तारवाला दिव्य प्रासाद स्थित है ॥ २३२ ॥ यो. ३१, को. १ । विचित्र मणिमय खम्भोंसे संयुक्त इस प्रासादकी उंचाई विस्तारसे दुगुणी अर्थात् साढ़े बास योजन और अवगाह दो कोशप्रमाण है । उसके द्वारका विस्तार चार योजन और उंचाई आठ योजन हैं ॥ २३३ ॥ उंचाई यो. ६२, को. २ । ( अवगाह को . २ ) । विस्तार ४ । उंचाई ८ यो । उपर्युक्त प्रासाद देदीप्यमान रत्नदीपकों सहित, विचित्र शय्याओं व आसनों से परिपूर्ण, और शब्द-रस-रूप-गन्ध एवं स्पर्शसे देवों के मनको आनन्दजनक, सुवर्णमय भीतोंपर रचे गये विचित्र चित्रों के सम्बन्धसे रमणीय, और आश्चर्यजनक स्वरूपसे संयुक्त है । बहुत कहने से क्या ? वह प्रासाद अनुपम है ॥ २३४-२३५॥ उस प्रासादमें उत्तम रत्नमुकुटको धारण करनेवाला और चमर-छत्रादिसे सुशोभित वह अशोक देव हजारों देवियोंसे युक्त होकर रमण करता है ।। २३६ । १ द ब सपादिहोराओ रमणमइराओ. २ द ब ४ द ब गंधे पासेहिं ३ द रुंद छेवाओ, ब दंछेदाओ. ६ ब कुंडल. Jain Education International चेचदुमीसाणे भागे चेट्ठेदि हु. होदि दिव्व'. ५ द तुषमणो रम्मा, ब तुरंयमणाणमा. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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