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________________ ५५६ ] तिलोय पण्णत्ती [ ५.२०६ ते सव्वे पासादा चदिम्मुंहविप्फुरंतकिरणेहिं । वररयणपईवेहिं णिच्चच्चियणिश्चउज्जोवा ॥ २०६ पोक्खरणीरम्मेहिं उववणसंडेहिं विविहरुक्खेहिं । कुसुमफलसोहिदेहिं सुरमिहुणजुदेहि सोर्हति || २०७ बिदुमवण्णा केई केई कप्पूरकुंदसंकासा | कंचणवण्णा केई केई वज्जिदगीलणिहा ॥ २०८ तेसुं पासादेसु विजभो देवी सहस्ससोहिल्लो । णिच्चजुवाणा देवा वररयणविभूसिदसरीरा ॥ २०९ लक्खणवंजणजुत्ता धादुविहीणा य वाहिपरिचत्ता । विविहसुहेसुं सत्ता कीडते बहुविणोदेणं ॥ २१० सयणाणि आसणाणि रयणमयाणिं भवंति भवणेसुं । मउवाणि णिम्मलाणिं मणणयणानंदजगणाणिं || २११ भादिमपासादस् य बहुमज्झे होदि कणयरयणमयं । सिंहासणं विसालं सपादपीढं परमरम्मं ॥ २१२ सिंहासनमारूढो बिजओ णामेण अहिवई तत्थ । पुव्वमुहे पासादे तत्थाणंदेदि लीलाए ॥ २१३ तस् य सामाणीया चेट्टते छस्सहस्सपरिमाणा । उत्तरदिसाविभागे विदिसाए विजयपीढादो ॥ २१४ जिनकी किरणें चारों दिशाओं में प्रकाशमान हो रही हैं ऐसे उत्तम रत्नमयी प्रदीपोंसे ये सब भवन नित्य अर्चित और नित्य उद्योतित रहते हैं ॥ २०६ ॥ पुष्करिणओंसे रमणीय, फल-फूलों से सुशोभित, अनेक प्रकारके वृक्षों से सहित, और देवयुगलोंसे संयुक्त ऐसे उपवनखण्डोंसे वे प्रासाद शोभायमान होते हैं ॥ २०७ ॥ इनमेंसे कितने ही भवन मूंगे जैसे वर्णवाले, कितने ही कपूर और कुंदपुष्प के सदृश, कितने ही सुवर्णवर्ण, और कितने वज्र एवं इन्द्रनीलमणिके सदृश हैं ॥ २०८ ॥ उन भवनोंमें हजारों देवियोंसे सुशोभित, विजय नामक देव शोभायमान है । और वहां नित्ययुवक, उत्तम रत्नोंसे विभूषित शरीरसे संयुक्त, लक्षण व व्यंजनोंसे सहित, धातुओंसे विहीन, व्याधिसे रहित, तथा विविध प्रकार के सुखोंमें आसक्त देव बहुत विनोदके साथ क्रीडा करते है ॥। २०९ - २१० ॥ इन भवनों में मृदुल, निर्मल और मन एवं नेत्रोंको आनन्ददायक रत्नमय शय्यायें व आसन विद्यमान हैं ॥ २११ ॥ प्रथम प्रासादके बहुमध्यभाग में अतिशय रमणीय और पादपीठ सहित सुवर्ण एवं रत्नमय विशाल सिंहासन है ॥ २१२ ॥ वहां पूर्वमुख प्रासाद में सिंहासनपर आरूढ़ विजय नामक अधिपति देव लीलासे आनन्दको प्राप्त होता है ॥ २१३ ॥ विजयके सिंहासन से उत्तरदिशा और विदिशामें उसके छह हजार प्रमाण सामानिक देव स्थित रहते हैं ॥ २१४॥ Jain Education International १ ब 'दिसुमुह". २ द ब 'संडा. ३ द ब जंविंद. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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