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________________ अन्तिम निवेदन (९५) लगाया गया है कि इस समस्त तारामण्डल रूप लोकका आकार लेन्सके आकारका है अर्थात् ऊपर और नीचेको उभरा हुआ और बीचमें फैला हुआ गोल है, जिसकी परिधिपर बाकाशगंगा दिखाई देती है और उभरे हुए भागके मध्यमें हमारा सूर्यमण्डल है । प्रश्न होता है कि क्या इस तारामण्डलमें पृथ्वीके अतिरिक्त और कहीं जीवधारी हैं या नहीं ! कुछ काल पूर्व मंगल ग्रहमें जीवधारियोंकी संभावना की जाती थी, किन्तु, जैसा हम ऊपर कह आये हैं, अब किसी भी ग्रहमें जीव-जन्तुओंकी सम्भावना नहीं की जाती । और जिन तारोंका हमने ऊपर वर्णन किया है वे तो सब सूर्यके समान अग्निके गोले हैं जिनमें जीवोंकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। सूर्यके अतिरिक्त अन्य किसी तारेके ग्रहों उपग्रहोंका कोई पता नहीं चलता जिनमें जीव-जगत्की कल्पना की जा सके । इस प्रकार विज्ञान इस विषयमें बहुत ही सशंक है कि हमारी इस पृथ्वीके अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी दृश्यमान लोकमें जीवधारी हैं या नहीं। [आधारभूत ग्रंथः -- The Structure of the earth by Prof. T. G. Bonney; An outline of Modern knowledge; Mysterious universe by Eddington; विश्वकी रूपरेखा- रा. सांकृत्यायनकृत ] ८ अन्तिम निवेदन तिलोयपण्णत्तिका प्रथम भाग सन् १९४३ में प्रकाशित हो गया था। उससे सात वर्ष पश्चात् यह दूसरा अन्तिम भाग प्रकाशित हो रहा है । इस विलम्बके अनेक कारण हैं । एक तो प्राचीन ग्रंथों विशेषत:-प्राकृतकी गहनविषयात्मक रचनाओंकी थोडीसी मौलिक प्रतियोंपरसे संशोधन, सम्पादन व अनुवाद करना एक बड़ा कठिन कार्य है। चित्तकी निराकुलताके विना यह कार्य सुचारु रूपसे नहीं हो पाता। पूर्वोक्त समयावधिके भीतर मेरा अमरावतीसे स्थान-परिवर्तन हो गया, तथा एक समय ऐसा भी आगया जब मेरा इस कार्यसे सम्बन्ध रहना भी संदिग्ध अवस्थामें पड़ गया। कागजको दुर्लभता तथा मुद्रणकी विघ्न-बाधाओंने भी गति-रोध उत्पन्न करनेमें कसर नहीं रक्खी। फिर अनुक्रमणिकाओं आदिके तैयार करने में बड़ा परिश्रम और समय लगा । सम्पादकोंके हाथ अन्य साहित्यिक कार्योंसे भरे होनेके कारण प्रस्तावना तैयार होनेमें भी विलम्ब हुआ । तथापि, इन सब विपत्तियोंके होते हुए भी, आज इस महान् प्रन्थका पूर्णतः प्रकाशन हो रहा है इस बातका हमें बड़ा हर्ष है । और इस सफलताका श्रेय है हमारे समस्त सहयोगियोंको। हमारी ग्रन्थमालाके संस्थापक ब्रह्मचारी जीवराज भाईकी धर्मनिष्ठा और कार्यतत्परता सराहनीय है । उनकी यह प्रेरणा बनी ही रहती है कि प्रन्धप्रकाशन कार्य जितना हो सके और जितने वेगसे हो सके उतना किया जाय । संस्कृतिसंरक्षक संघके अधिकारियों तथा प्रबन्धसमितिके सदस्योंका भी इस विषयमें मतैक्य है। फिर .भी यदि ग्रन्थप्रकाशनमें पाठकोंको विलम्ब दिखाई दे तो इसका कारण कार्यकर्ताओं के उत्साहमें कमी नहीं, किन्तु इस कार्यकी विशेष अनिवार्य अड़चनें ही हैं । ग्रन्थमें आये हुए गणितने हमें अनेक वार बहुत हैरान किया । इस सम्बन्धमें, विशेषतः पांचवेंसे सातवें अधिकार तक, आये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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