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________________ (९६) त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना हुए गणितके अनेक स्थलोंकी गुत्थियोंको सुलझाने में मुझे मेरे प्रिय मित्र श्री नेमिचन्द्र सिंघई, इंजीनियर, नागपुरसे बहुत सहायता मिली। मेरे सहयोगी और स्नेही मित्र डॉ. आदिनाथ उपाध्येके धैर्य और उत्साहकी भी प्रशंसा किये बिना मुझसे नहीं रहा जाता । उनकी निरन्तर प्रेरणा और मेरे लिये आकर्षण यदि प्रबल नहीं होते तो संभवतः इस कार्यों और भी विघ्न एवं विलम्ब हो सकता था। परिस्थितियोंके चढ़ाव-उतारके बीच भी कार्यमें एकरूपता और अविच्छिन्नता बनाये रखनेका श्रेय हमार पं. बालचन्द्रजी शास्त्रीको है, जो सब अवस्थाओंमें बड़ी ही एकाग्रता, तत्परता एवं निराकुल भावसे कार्यको गतिशील बनाये रहे हैं। हम तीनोंके बीच सम्पादन कार्यके सम्बन्धमें कभी कोई असामञ्जस्य उत्पन्न नहीं हुआ, यह प्रकट करते मुझे बड़ा हर्ष होता है । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम किसी भी बातमें कोई मतभेद ही नहीं रखते । सच्चे और स्वतंत्र विचारकोंमें ऐसा होना असम्भव है | मेरे कहनेका अभिप्राय यह है कि हमारे मतभेदसे ग्रन्थरचनामें कोई त्रुटि या कठिनाई उत्पन्न नहीं हुई, किन्तु उससे सदैव विषयकी समृद्धि और पुष्टि ही हुई है। यह बात इस ग्रन्थकी प्रस्तावनाओंपर ध्यान देनेसे पाठकोंको खूब ही स्पष्ट हो जायगी । ग्रन्थकी अंग्रेजी भूमिका मेरे प्रिय मित्र डॉ. उपाध्येने लिखी है । मैंने उसीके आधारपर, प्रायः अनुवाद रूपसे ही, हिन्दी प्रस्तावनाके प्रथम तीन परिच्छेद लिखे हैं । ग्रन्थके रचनाकाल सम्बन्धी प्रमाणों के विषयमें भी यद्यपि मेरे और डॉ. उपाध्येजाके बीच मतैक्य है, तथापि किन बातोंको आपेक्षिक कितना महत्त्व दिया जाय इस बातपर हमारा कुछ मतभेद है । अतएव इस विषयपर हमने अपने अपने विचार एक दूसरेके लेखोंसे लाम उठाकर भी कुछ स्वतंत्रतासे प्रकट किये हैं। इससे पाटकोंको विचार व अध्ययनके लिये प्रचुर सामग्री मिलेगी और आगे अन्वेषणका मार्ग अवरुद्ध न होकर खुला रहेगा। ग्रन्थका विषय-परिचय तथा प्रन्थ की अन्य ग्रन्थोंसे तुलना शीर्षक परिच्छेद पं. बालचन्द्रजी शास्त्री द्वारा लिख गये हैं जिनमें मैने यत्र तत्र परिवर्तन व घटा बढ़ीके सिवाय विशेष कुछ नहीं किया । 'हमारा आधुनिक विश्व ' शीर्षक परिच्छेद मैंने लिखा है। मुझे पूर्ण आशा और भरोसा है कि यह सब सामग्री इस महान् ग्रन्थके इतिहास, उसकी विषयसमृद्धि एवं साहित्यमें प्रभावको समझनेमें पाठकों की बड़ी सहायता करेगी। __ अन्तमें मैं इस ग्रन्थके मुद्रक, सरस्वती प्रेसके मैनेजर श्री टी. एम्. पाटिलके सहयोग का उल्लेख किये विना नहीं रह सकता । आज कोई बीस वर्षसे मेरा जो सम्बन्ध सरस्वती प्रेससे अविच्छिन्न चला आ रहा है, उसका मुख्य कारण श्री पाटिलका सौजन्य और हमारे प्रति सद्भाव ही है । इसी कारण मेरे नागपुर आजानेपर भी इस प्रेससे सम्बन्धविच्छेदकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की। मुझे आशा है कि जब तक उनका प्रेससे सम्बन्ध है और मेरा साहित्यिक कार्यसे, तब तक हमारा सहयोग अस्खलित बना रहेगा। नागपुर महाविद्यालय, । हीरालाल जैन विजयादशमी, १९५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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