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________________ हमारा आधुनिक विश्व (९१) भूगर्भकी ज्वाला कुपित होकर भूकम्प उत्पन्न कर देती है, व ज्वालामुखीके रूपमें फूट निकलती है। इसीसे शैल, पर्वत, कन्दराओं आदिका निर्माण व विध्वंस तथा भूमि और जलभागों में विपरिवर्तन होता रहता है । इसी अग्निके तापसे पृथ्वीका द्रव्य यथायोग्य दवाब व शीतलता पाकर नाना प्रकारकी धातु-उपधातुओं एवं द्रव और वायु रूपी पदार्थों में परिवर्तित हो गया है, जो हमें पत्थर, कोयला, लोहा, सोना, चांदी आदि तथा जल और वायुमण्डलके रूपमें दिखाई देता है । जल और वायु ही सूर्यके प्रतापसे मेघों आदिका रूप धारण कर लेते हैं । यह वायुमण्डल पृथ्वीके धरातलसे उत्तरोत्तर विरल होते हुए लगभग पांच सौ मील तक फैला हुआ अनुमान किया जाता है । पृथ्वीका धरातल भी सम नहीं है । पृथ्वीतलका उच्चतम भाग हिमालयका गौरीशंकर शिखर ( माउंट एवरेस्ट ) माना जाता है जो समुद्रतलसे उनतीस हजार फुट अर्थात् कोई सादे पांच मील ऊंचा है । तथा समुद्रकी उत्कृष्ट गहराई बत्तीस हजार फुट अर्थात् लगभग छह मील तक नापी जा चुकी है । इस प्रकार पृथ्वीतलकी उंचाई निचाईमें उत्कृष्टतम साढ़े ग्यारह मील का अन्तर पाया जाता है । इसकी ठण्डी होकर जमी हुई पपड़ी सत्तर मील समझी जाती है जिसकी द्रव्यरचनाके अध्ययनसे अनुमान लगाया गया है कि उसे जमे लगभग तीन करोड़ वर्ष हुए हैं । सजीव तत्त्वके चिह्न केवल चौतीस मीलकी ऊपरकी पपड़ी में पाये जाते हैं जिससे अनुमान लगाया गया है कि पृथ्वीपर जीव तत्त्व उत्पन्न हुए दो करोड़ वर्ष से अधिक काल नहीं हुआ । इसमें भी मनुष्यके विकासके चिह्न केवल एक करोड़ वर्षके भीतरके ही पाये गये हैं। पृथ्वीतलके ठण्डे हो जाने के पश्चात् उसपर आधुनिक जीवशास्त्रके अनुसार, जीवनका विकास इस क्रमसे हुआ। सर्व प्रथम स्थिर जलके ऊपर जीव-कोश प्रकट हुए जो पाषाणादि जड़ पदार्थोंसे मुख्यतः तीन बातोंमें भिन्न थे । एक तो वे आहार ग्रहण करते और बढ़ते थे । दूसरे वे इधर उधर हलचल भी सकते थे । और तीसरे वे अपने ही तुल्य अन्य कोश भी उत्पन्न कर सकते थे । कालक्रमसे इनमेंके कुछ कोश भूमिपर जड़ जमा कर स्थावरकाय-वनस्पति बन गये, और कुछ जलमें ही विकसित होते होते मत्स्य बन गये । क्रमशः ऐसे वनस्पति व मैंढक आदि प्राणी उत्पन्न हुए जो जलमें ही नहीं किन्तु थलपर भी श्वासोच्छ्वास कर सकते थे । इन्हीं स्थल प्राणियों से सरीसृप अर्थात् घिसटकर चलनेवाले जन्तु सांप आदि उत्पन्न हुए। सरीसृपका विकास दो दिशाओंमें हुआ- एक पक्षी और दूसरे स्तनधारी प्राणी । स्तनी जातिकी यह विशेषता है कि वे अण्डे उत्पन्न न कर गर्भधारण करके अपनी जातिके शिशु उत्पन्न करते और अपने स्तनोंके दूधसे उनका पोषण करते हैं। इसी कारण उनमें शिशुपालन व मातृप्रेमकी भावना उत्पन्न होती है । मकरसे लेकर भेड़, बकरी, गाय, भैंस, घोड़ा, हाथी आदि सब इसी महा जातिके प्राणी हैं । इन्हीं स्तनधारी प्राणियोंकी एक जाति वानर उत्पन्न हुई। किसी समय कुछ वानरोंने अपने अगले दो पैर उठाकर पीछेके दो पैरोंपर चलना सीख लिया। बस, यहींसे मनुष्य जातिका विकास प्रारम्भ हुआ माना जाता है । उक्त जीवकोशसे लगाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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