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त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना और अवलोकनसे ही तृप्तिको प्राप्त होते हैं।
___कामधातुके ऊपर सत्तरह स्थानोंसे संयुक्त रूपधातु है । वे सत्तरह स्थान ये हैंप्रपम ध्यान में ब्रह्मकायिक, ब्रह्मपुरोहित व महाब्रह्म लोक; द्वितीय ध्यानमें परित्ताभ, अप्रमाणाभ, व आभखर लोक; तृतीय ध्यानमें परित्तशुभ, अप्रमाणशुभ व शुभकृत्स्न लोक; तथा चतुर्थ ध्यानमें अनभ्रक, पुण्यप्रसव, वृहत्फल, पंचशुद्धावासिक, अबृह, अतपसुदृश, सुदर्शन और अकनिष्ठ; इस प्रकार इन चार ध्यानोंमें उक्त सत्तरह लोक हैं । ये देवलोक क्रमशः ऊपर-ऊपर अवस्थित हैं । इनमें रहनेवाले देव ऋद्धिबलसे अथवा अन्य देवकी सहायतासे ही अपनेसे ऊपरके देवलोकको देख सकते हैं।
जम्बूद्वीपवासी मनुष्योंका शरीर ३३ या ४ हाथ, पूर्वविदहवासियोंका ७-८ हाय, गोदानीयद्वीपवासियोंका १४-१६ हाथ और उत्तरकुरुस्थ मनुष्योंका शरीर २८-३२ हाथ ऊंचा होता है । कामधातुवासी देवोंमें चातुर्महाराजिक देवोंका शरीर । कोश, त्रयस्त्रिंशोंका ३ कोश, यामोंका कोश, तुषितोंका १ कोश, निर्माणरति देवोंका ११ कोश और परनिर्मितवशवर्ती देवोंका शरीर १३ कोश ऊंचा है । रूपधातुमें ब्रह्म कायिक देवोंका शरीर ३ योजन ऊंचा है। आगे ब्रह्मपुरोहित, महाब्रह्म, परित्ताभ, अप्रमाणाभ, आभस्वर, परित्तशुभ, अप्रमाणशुभ और शुभकृत्स्न, इन देवोंका शरीरोत्सेध क्रमशः १, १३, २, ४, ८, १६, ३२ और ६४ योजन प्रमाण है। अनभ्र देवोंके शरीरकी उंचाई १२५ यो. प्रमाग है । आगे इस उंचाईका प्रमाण पुण्यप्रसव आदिक सात देवोंमें उत्तरोत्तर दूना-दूना होता गया है।
यहां अंगुलादिकका प्रमाण इस प्रकार बतलाया गया है- परमाणु, अणु, लोहरज, जलरज, शशरज, अविरज, गोरज, छिद्ररज, लिक्षा, यव और अंगुलीपर्व, ये क्रमशः उत्तरोत्तर सात-सातगुणे हैं । २४ अंगुलियों का एक हाथ, ४ हाथका एक धनुष, ५०० धनुषका एक कोश, १०० धनुषका अरण्य और ८ कोशका एक योजन होता है।
७ हमारा आधुनिक विश्व गत पृष्ठोंमें हम देख चुके कि जिस विश्वमें हम निवास करते हैं उसको हमारे पूर्वाचार्योंने तथा नाना धोके गुरुओंने किस प्रकार समझा है। यहां हम तुलनात्मक अध्ययनकी सुविधाके लिये विश्वका वह स्वरूप संक्षेपमें प्रस्तुत करते हैं जो इस युगके वैज्ञानिकोंने निर्धारित किया है।
जिस पृथ्वीपर हम निवास करते हैं वह मिट्टी पत्थरका एक नारंगीके समान चपटा गोला है जिसका व्यास लगभग आठ हजार मील और परिधि पच्चीस हजार मीलकी है। किसी समय, आजसे करोड़ों वर्ष पूर्व, यह ज्वालामयी अग्निका गोला था । यह अग्नि धीरे धीरे ठंडी होती गई और अब यद्यपि पृथ्वीका धरातल सर्वत्र शीतल हो चुका है तो भी अभी इसके गर्भमें अग्नि तीव्रतासे जल रही है, जिसके कारण हमारा धरातल भी कुछ उष्णताको लिये हुए है, तथा नीचेकी ओर खुदाई की जाय तो अधिकाधिक उष्णता पाई जाती है। कभी कभी यही
१ यह व्यवस्था प्रायः “कायप्रवीचारा आ ऐशानात् , शेषाः स्पर्श-रूप-शब्द-मनःप्रवीचाराः " (त. सू. ४, ७-८.) इन सूत्रोंमें बतलायी गयी व्यवस्थाके समान है।
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