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८१. भुवणालंकारहत्थिसल्लपव्वं तत्तो सो वरहत्थी, हलहर-नारायणेहि सहिएहिं । अइकढिणदप्पिएहि वि, गहिओ च्चिय सकियमणेहिं ॥ १ ॥ नारायणबयणेणं, नीओ च्चिय मन्तिणेहि निययघरं । संपेसिओ गओ सो, पूयं परिलम्भिओ चेव ॥ २ ॥ दळूण गयं गहियं, समयं विज्जाहरेहि सबनणो । पउमस्स लक्खणस्स य, बलमाहप्पं पसंसन्ति ॥ ३ ॥ सीया य विसल्ला वि य, भरहो सह पणइणीहि निययाहिं । लक्खणरामा य तओ, कुसुमुज्जाणं समुच्चलिया ॥ ४ ॥ बहुतूरनिणाएणं, जयसददुग्घुट्टमङ्गलरवेणं । अहिनन्दिया पविट्ठा, राहवभवणं सुरपुरामं ॥ ५ ॥
ओयरिय वाहणाणं, उवविद्याऽऽहारमण्डवं सबे । पडिलाहिऊण साहु, परियणसहिया तओ निमिया ॥ ६ ॥ ताव य मगहनराहिलं, सबे मंती समागया तत्थ । काऊण सिरपणाम, राहव ! निसुणेहि वयणऽम्हं ॥ ७ ॥ जत्तो पभूइ सामिय!, खुभिऊणं सो समागओ हत्थी । तत्तो पभूइ गाढं, झायइ किं किं पि हियएणं ॥ ८ ॥ ऊससिऊण सुदीहं, निमीलियच्छो करेण महिवेढं । आहणइ धुणइ सीसं, पुणरवि चिन्तावरो होइ ॥ ९॥ थुवन्तो च्चिय कवलं, न य गेण्हइ निठुरं पि भण्णन्तो । झायइ थम्भनिसण्णो, करेण दसणं च वेढेउं ॥ १० ॥ लेप्पमओ इद सुइरं, चिट्ठइ सो अचलियङ्गपच्चङ्गो । किं जीवपरिग्गहिओ, होज न होज ? त्ति संदेहो ॥ ११ ॥ मन्तेहि ओसहेहि य, वेज्जपउत्तेहि तस्स सब्भावो । न य लक्खिज्जइ सामिय!, अहियं वियणाउरो सो उ ॥ १२ ॥ संगीययं पि न सुणइ, न य कुणइ धिइं सरे ण सेज्जासु । न य गामे न य रण्णे, आहारे नेव पाणे य ॥ १३ ॥ एयावत्थसरीरो, वट्टइ तेलोक्कमण्डणो हत्थी । अम्हेहि तुज्झ सिट्ठो, तस्स उवायं पहू कुणसु ॥ १४ ॥
८१. त्रिभुवनालंकार हाथीकी वेदना तब अत्यन्त कठोर और दर्पयुक्त होने पर भी मनमें शंकित राम और लक्ष्मणने मिलकर उत्तम हाथीको पकड़ा । (१) नारायण लक्ष्मणके कहनेसे मन्त्रियों के द्वारा अपने घर पर लाया गया वह हाथी पूजा प्राप्त करके भेज दिया गया। (२) हाथी पकड़ा गया है यह देखकर विद्याधरों के साथ सब लोग राम एवं लक्ष्मणके बलके गौरवकी प्रशंसा करने लगे। (३) तब सीता, विशल्या, अपनी स्त्रियोंके साथ भरत तथा राम एवं लक्ष्मण कुसुमोद्यानकी ओर चले । (४) अनेकविध वाद्योंके निनाद और जयध्वनिसे युक्त मंगलगीतोंके द्वरा अभिनन्दित वे इन्द्रपुरीके जैसे रामके महल में प्रविष्ट हुए । (५) वाहनों पर से उतरकर सब भोजनमण्डपमें जा बैठे। साधुको दान देकर परिजनोंके साथ उन्होंने भोजन किया (६)
हे मगधनरेश ! उस समय सब मन्त्री वहाँ आये। सिरसे प्रणाम करके उन्होंने कहा कि, हे राघव! हमारा कहना आप सुनें । (७) हे स्वामी! जबसे लोगोंको क्षुब्ध करके वह हाथी आया है तबसे न जाने क्या क्या वह हृदयमें सोच रहा है। (८) दीर्घ उच्छ्वास लेकर और आँखें बन्द करके वह ढूंढ़से धरातलको पीटता है, सिर धुनता है और फिर चिन्तित हो जाता है। (९) प्रशंसा करने पर या निष्ठुर रूपसे कहने पर भी वह आहार नहीं लेता। स्तम्भके पास बैठा हुआ वह ढूंढ़से दाँतोको लपेटकर ध्यान करता है। (१०) चित्रके समान अंग-प्रत्यंगसे अविचलित वह चिरकाल तक खड़ा रहता है। उसमें जीव है या नहीं इसमें सन्देह है। (११) हे स्वामी! वैद्यों द्वारा प्रयुक्त मन्त्रों और औषधोंसे उसके जीवका सद्भाव ज्ञात नहीं होता। जनशून्य एकान्तके लिए वह अधिक आतुर रहता है। (१२) वह संगीत नहीं सुनता। स्वर और शय्या में भी धैर्य धारण नहीं करता। गाँव में, अरण्यमें, आहारमें एवं पानमें भी उसे सुख प्रतीत नहीं होता। (१३) ऐसी शारीरिक अवस्थावाले त्रैलोक्य मण्डन हाथीके बारेमें हमने आपसे कहा। हे स्वामी!
१. •यणेहिं मंतीहिं करी निओ य नियय-प्रत्यः। २. .व ताण तहिं आयया महामती । का.-मु०। ३. छुन्भंतो-प्रत्य० । ४. व्यं चिय लालिओ सो उ-प्रत्य। ५. य नयरे न य हारे णेव-प्रत्यः ।
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