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________________ ४५२ पउमचरियं [८०.६१ भमिऊण समाढत्तो, भञ्जन्तो भवणतोरणवराई । पायारगोयरावण, वित्तासेन्तो य नयरनणं ॥ ६१ ॥ पलयघणसइसरिसं, तस्स रवं निसुणिऊण सेसगया। विच्छड्डियमयदप्पा, दस वि दिसाओ पलायन्ति ॥ ६२॥ वरकणयरयणतुङ्ग, भंतूणं नयरगोउरं सहसा । भरहस्स समासन्ने, उवढिओ सो महाहत्थी ॥ ६३ ॥ दहण गयवरं तं, जुवईओ भयपवेविरङ्गीओ । भरहं समासियाओ, आइचं चेव रस्सीओ ॥ ६४ ॥ भरहाहिमुहं हत्थिं, जन्तं दद्दूण नायरो लोगो । हाहाकारमुहरवं, कुणइ महन्तं परियणो य ॥ ६५ ॥ अह ते दोणि वि समयं, हलहर-नारायणा गयं दट्ठी घेत्तूण समाढत्ता, निम्मज्जियपरियरावेढा ॥ ६६ ॥ ताव य भरहनरिन्द, अणिमिसनयणो गओ पलोएउं । सुमरइ अईयजम्म, पसन्तहियओ सिढिलगत्तो ॥ ६७ ॥ तं भणइ भरहसामी, केण तुम रोसिओ अणज्जेणं । गयवर पसन्नचित्तो, होहि कसायं परिच्चयसु ॥ ६८ ॥ सुणिऊण तस्स वयणं, अहिययरं सोमदंसणसहावो । जाओ मयङ्गओ सो, ताहे संभरइ सुरजम्मं ॥ ६९ ॥ एसो महिड्विजुत्तो, मित्तो बम्भे सुरो पुरा आसि । चविऊण नरवरिन्दो, जाओ बलसत्तिसंपन्नो ॥ ७० ॥ हा कटुं अहयं पुण, निन्दियकम्मो तिरिक्खनोणीसु । कह हस्थि समुप्पन्नो, विवेगरहिओ अकयकारी ।। ७१ ॥ तम्हा करेमि संपई, कम्मं तं जेण निययदुक्खाई । छेत्रण देवलोए, भुञ्जामि नहिच्छिए भोगे ॥ ७२ ॥ एवं वइकन्तभवं सरेउं, जाओ सुसंवेगपरो गइन्दो । चिन्तेइ तं एत्थ करेमि कम्म, जेणं तु ठाणं विमलं लहे है ॥ ७३ ॥ ॥ इइ पउमचरिए तिहयणालंकारसंखोभविहाणं नाम आसीइमं पव्वं समत्तं ॥ ब को देखकर पकड़नेका र स्मरण करने लगा। (६) उसका हस्तिशालामेंसे बाहर निकला । (६०) सुन्दर भवनों, तोरणों, प्राकार, गोचर-भूमि और वनोंको तोड़ता तथा नगरजनोंको त्रस्त करता हुआ वह घूमने लगा। (६१) प्रलयकालीन बादलोंकी गर्जनाके समान उसकी चिघाड़को सुनकर मद एवं दर्पका परित्याग करके दूसरे हाथी भी दसों दिशाओं में भागने लगे। (६२) सोने और रत्नोंसे बने हुए नगरके ऊँचे गोपुरको तोड़कर सहसा वह महाहस्ती भरतके पास आया। (६३) उस हाथीको देखकर भयसे काँपती युवतियोंने, जिस प्रकार किरणे सूर्यका आश्रय लेती हैं उसी प्रकार भरतका आश्रय लिया। (६४) भरतकी ओर जाते हुए हाथीको देखकर नगरजन तथा परिजन खूब हाहाकार और कोलाहल करने लगे। (६५) तब स्नान किये हुए परिवारसे वेष्टित राम और लक्ष्मण दोनों एक-साथ ही हाथीको देखकर पकड़नेका प्रयत्न करने लगे। (६६) उस समय अपलक आँखोंसे भरत राजाको देखकर शिथिल गाववाला हाथी हृदयमें प्रसन्न होकर स्मरण करने लगा। (६७) उसे भरतस्वामीने कहा कि 'हे गजवर ! किस अनार्यने तुझे क्रुद्ध किया है ? प्रसन्नचित्त होकर कषायका त्याम कर । (६३) उसका कथन सुनकर वह हाथी और भी अधिक सौम्य दर्शन और सौम्य स्वभाव वाला हो गया। तब उसने देवजन्म याद किया। (६९) 'यह पूर्वकालमें ब्रह्मलोकमें अत्यन्त ऐश्वर्यसे सम्पन्न मेरा मित्र देव था। वहाँसे च्युत होनेपर बल एवं शक्तिसम्पन्न नरेन्द्र हुआ। (७०) किन्तु अफसोस है ! में निन्दित कर्म करनेवाला, विवेक रहित और अकार्यकारी तिर्यच योनिमें हाथीके रूपमें कैसे उत्पन्न हुआ? (७१) अतः अब ऐसा कर्म करता हूँ जिससे अपने दुःखोंका नाश करके देवलोकमें यथेच्छ भोगोंका उपभोग करूँ। (७२) इस तरह बीते हुए भवोंको याद करके हाथी संवेगयुक्त हुआ। वह सोचने लगा कि यहाँ पर ऐसा कार्य करूँ जिससे में विमल स्थान प्राप्त करूँ। (७३) ॥ पद्मचरितमें त्रिभुवनालंकार हाथीके संक्षोभका विधान नामक अस्सीवाँ पर्व समाप्त हुआ । ६९) 'यह पूर्वकालम अफसोस है ! मैं ४. •इ, तं कर्म जेण सव्वदु० १. हाहारावमु. मु.। ५. एवं अइ०-प्रत्य। २. यणो पलोइउं लग्गो । सु. प्रत्य। ३. अनय-प्रत्य। ६. लहेमि-मु०। ७. .रसंखोहणं-प्रत्य० । प्रत्य.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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