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८०. भुवणालंकारहस्थिसंखोभणपब्वं अणुमन्नह मे सिग्छ, विग्घं मा कुणह जाइया तुब्भे । कजं सलाहणिज्जं, जह तह वि नरेण कायवं ॥ ४५ ॥ नन्दाइणो नरिन्दा, बहवो अणियत्तविसय पेम्मा य । बन्धवनेहविनडिया, कालेण अहोगई पत्ता ॥ ४६॥ जह इन्धणेण अम्गी, न य तिप्पइ सागरो नइसएसु । तह जीवो वि न तिप्पइ, महएसु वि कामभोगेसु ॥ ४७ ।। एव भणिऊण भरहो, समुट्टिओ आसणाउ वच्चन्तो । लच्छीहरेण रुद्धो, गरुयसिणेहं वहन्तेणं ॥ ४८ ॥ जाव य तस्सुवएस, देइ च्चिय लक्खणो रइनिमित्तं । ताव य पउमाणाए, समागयाओ पणइणीओ ॥ ४९ ॥ एयन्तरम्मि सीया, तह य विसल्ला सुभा य भाणुमई । इन्दुमई रयणमई, लच्छी कन्ता गुणमई य ॥ ५० ॥ नलकुबरी कुबेरी, बन्धुमई चन्दणा सुभद्दा य । सुमणसुया कमलमई, नन्दा कल्लाणमाला य ॥ ५१ ॥ तह चेव चन्दकन्ता, सिरिकन्ता गुणमई गुणसमुद्दा । पउमावइमाईओ, उज्जुवई एवमाईओ ॥ ५२ ॥ मणनयणहारिणीओ, सबालंकारभूसियङ्गीओ । परिवेढिऊण भरह, ठियाओ हत्थि व करिणीओ ॥ ५३ ॥ त भणइ जणयतणया, देवर ! अम्हं करेहि वयणमिणं । कीलसु जलमज्जणयं, सहिओ य इमासु जुवईसु ॥ ५४ ॥ सो एव भणियमेत्तो, भरहो वियलियसिणेहसंबन्धो। दक्खिण्णेण महप्पा, अण्णिच्छइ पयणुमेत्तेणं ॥ ५५ ॥ भरहस्स महिलियाओ, ताव तहिं उवगयाउ सबाओ । अवइण्णाउ सरवरं, दइएण समं पहटाओ ॥ ५६ ॥ निद्धसु सुयन्धेसु य, उबट्टणएसु विविहवण्णेसु । उबट्टिओ महप्पा. हाओ जुवईहि समसहिओ ॥ ५७ ॥ उत्तिण्णो य सराओ, जिणवरपूयं च भावओ काउं । नाणाभरणेसु तओ, विभूसिओ, पणइणिसमग्गो ॥ ५८ ॥ कोलणरईविरत्तो, भरहो तच्चत्थदिट्ठसब्भाओ । वरजुवईहि परिमिओ, सो परमुबेयमुबहइ ॥ ५९॥
एयन्तरम्मि जो सो, हत्थी तेलोक्कमण्डणो नाम । खुहिओ आलाणखम्भ, भन्तुं सालाओ निप्फिडिओ ॥ ६०॥ विषयों में अनियंत्रित प्रेम रखनेवाले और बान्धव-स्नेहसे व्याकुल नन्द आदि बहुत-से राजाओंने कालके द्वारा अधोगति पाई है। (४६) जिस तरह ईन्धनसे आग और सैकड़ों नदियोंसे समुद्र तृप्त नहीं होता उसी तरह बड़े-बड़े कामभोगोंसे भी जीच तृप्त नहीं होता। (४७) ऐसा कहकर सिंहासन परसे उठकर जाते हुए भरतको अत्यन्त स्नेह धारण करनेवाले लक्ष्मणने रोका । (४८)
लक्ष्मण उसे भोगके लिए जिस समय उपदेश दे रहा था उसी समय रामकी आज्ञासे प्रणयिनी स्त्रियाँ वहाँ आई । (४९) इस बीच सीता, विशल्या, शुभा, भानुमति, इन्दुमती, रत्नमती, लक्ष्मी, कान्ता, गुणमति, नलकूबरी, कुबेरी, बन्धुमति, चन्दना, सुभद्रा, सुमनसुता, कमलमती, नन्दा, कल्याणमाला, चन्द्रकान्ता, श्रीकान्ता, गुणमती, गुणसमुद्रा, पद्मावती, ऋजुमति आदि मन और आँखोंको सुन्दर लगनेवाली तथा सब प्रकारके अलंकारोंसे विभूषित शरीरवाली स्त्रियाँ भरतको, हाथी को घेर कर खड़ी हुई हथिनियोंकी भाँति, घेरकर खड़ी रहीं। (५०-५३) सीताने उसे कहा कि देवर ! हमारा यह वचन मानो। इन युवतियोंके साथ जल-स्नानकी क्रीड़ा करो। (५४) इस प्रकार कहने पर स्नेह-सम्बन्धसे रहित महात्मा भरतने थोड़ा दाक्षिण्यभाव जतानेके लिए अनुमति दी । (५५) तब भरतकी सब पत्नियाँ वहाँ उपस्थित हुई और आनन्दमें आकर पतिके साथ सरोवरमें उतरी। (५६) स्निग्ध, सुगन्धित और विविध वर्णवाले उबटनोंसे मले गये महात्मा भरतने युवतियोंके साथ स्नान किया। (५७) सरोवरमें उतरकर और भावपूर्वक जिनपूजा करके स्त्रियोंसे युक्त वह नानाविध श्राभरणोंसे विभूषित हुआ। (५८) क्रीड़ाके प्रेमसे विरक्त और तत्त्वोंके अर्थसे वस्तुके सद्भावको जाननेवाला भरत सुन्दर युवतियोंसे घिरे रहने पर भी, अत्यन्त उद्वेग धारण करता था। (५९)
उस समय त्रैलोक्यमण्डन (त्रिभुवनालंकार) नामका जो हाथी था वह क्षुब्ध हुआ और बाँधनेके स्तम्भको तोड़कर
१. सिग्छ, मा कुणह विलंबणं महं तुम्भे प्रत्य० । २. यपिम्माओ प्रत्यः । •यपेम्माओ प्रत्य० । ३. य तप्पइ जलनिही नइ. प्रत्य०। ४. कमलवई प्रत्यः । ५. सिरिदा प्रत्य.। ६. एत्थ प्रत्य। ७. पूया य मु.। ८. कीलइ रहे. प्रत्य.. ६. खुहिउं मु०।
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