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________________ पउमचरियं सो चेव सुकयपुण्णो, पुरिसो जो कुणइ अभिगओ विणयं । जणणीण अप्पमत्तो, आणावयणं अलवन्तो ॥३४॥ जणणीण कुसलबत्तं, सोऊणं राम-लक्खणा तुट्ठा । पूयन्ति नारयं ते. समयं विज्जाहरभडेहिं ॥ ३५ ॥ एयन्तरम्मि पउमो, बिभीसणं भणइ सुहडसामक्खं । अम्हे साएयपुरी, भद्द ! अवस्सेण गन्तवं ॥ ३६ ॥ सुयसोगाणलतवियाण ताण जणणीण तत्थ गन्तूणं । दरिसणजलेण अम्हे, णिव वियवाई अङ्गाई ।। ३७ ।। काऊण सिरपणाम, विभीसणो भणइ सुणसु वयणं मे । राहव ! सोलस दियहा, अच्छेयबं महं भवणे ॥ ३८ ॥ अन्नं पि सामि ! निसुणसु, पडिवत्ताकारणेण साएए । पेसिज्जन्ति नरुत्तम !, दूया भरहस्स तूरन्ता ॥ ३९ ॥ राहववयणेण तओ. या संपेसिया तुरियवेगा । गन्तूण पणमिऊण य, भरहस्स कहेन्ति पडिवत्तं ॥ ४०॥ पत्तो हलं समुसलं, रामो चक्कं च लक्खणो धीरो। निहओ लङ्काहिवई, सीयाएँ समागमो जाओ ॥ ४१ ॥ अह बन्धणाउ मुक्का, इन्दइपमुहा भडा उ पवइया । लद्धाओ गरुड-केसरिविज्जाओ राम-चक्कीणं ॥ ४२ ॥ जाया विभीसणेणं, समयं च निरन्तरां महापीई । लङ्कापुरीऍ रज्ज, कुणन्ति बल-केसवा मुइया ॥ ४३ ॥ एवं राघव-लक्खण-रिद्धी, सुणिऊण हरिसिओ भरहो । तम्बोल सुगन्धाइसु दुए पूएइ विभवेणं ।। ४४ ॥ घेत्तण तओ दूए, भरहो जणणीणमुवगओ मुलं । सुयसोगदुक्खियाणं, कहेन्ति वत्ता अपरिसेसा ॥ ४५॥ सोऊण कुसलवत्ता, सुयाण अभिणन्दियाउ जणणीओ। ताव य अन्ने वि बहू, नयरी विज्जाहरा पत्ता ।। ४६ ॥ अह ते गयणयलत्था, विभीसणाणाए खेयरा सबै । मुञ्चन्ति रयणवुट्टि, घरे घरे तीऍ नयरीए ॥ १७ ॥ अह तत्थ पुरवरीए, विजाहरसिप्पिएसु दक्खेसु । सयलभवणाण भूमी, उवलित्ता रयणकणएणं ॥ ४८ ॥ निणवरभवणाणि बहू, सिग्घं चिय निम्मियाई तुङ्गाई। पासायसहस्साणि य, अट्टावयसिहरसरिसाइं ॥ ४९ ॥ का समाचार कहकर हमें तुमने जीवन दिया है। (३३) वही सुकृतसे पूर्ण हैं जो आज्ञाका उल्लंघन न करके अप्रमत्तभावसे सम्मुख जाकर माताका विनय करता है। (३४) माताओंकी कुशलवार्ता सुनकर तुष्ट राम-लक्ष्मणने विद्याधर सुभटोंके साथ नारदकी पूजा की। (३५) इसके पश्चात् रामने सुभटोंके समक्ष विभीषणसे कहा कि, भद्र ! हमें अवश्य ही अयोध्या जाना चाहिए। (३६) पुत्रके शोक रूपी अग्निसे तप्त उन माताओंके अंगोंको वहाँ जाकर दर्शन रूपी जलसे हमें शान्त करना चाहिए। (३७) मस्तकसे प्रणाम करके विभीषणने कहा कि, हे राघव ! मेरा कहना सुनें। मेरे भवनमें सोलह दिन तो आपको ठहरना चाहिए। (३८) हे स्वामी! और भी सुनें। हे नरोत्तम ! वृत्तान्त जाननेके लिए साकेतमें भरतके पास मैं दूत भेजता हूँ। (३६) तब रामके कहनेसे बहुत बेगवाले दूत भेजे गये। जाकर और प्रणाम कर भरतसे सारा वृत्तान्त उन्होंने कह सुनाया कि रामने मुसलके साथ हल ओर धीर लक्ष्मगने चक्र प्राप्त किया है, लंकापति रावण मारा गया है और सीताके साथ समागम हुआ है। (४०-४१) बन्धनसे विमुक्त इन्द्रजित आदि सुभटोंने दीक्षा ली है, राम एवं चक्री लक्ष्मणने गरुड़ और केसरी विद्याएँ प्राप्त की हैं। (४२) विभीषणके साथ सदैवके लिए महाप्रीति हुई है और प्रसन्न राम व लक्ष्मण लंकापुरी में राज्य करते हैं।(४३) राम-लक्ष्मणकी ऐसी ऋद्धि सुनकर हर्षित भरतने ताम्बूल और सुगन्धित पदार्थ आदि से वैभवपूर्वक दूतोंकी पूजा की। (४४) तब दूतोंको लेकर भरत माताओं के पास गया और पुत्रके शोकसे दुःखित उन्हें सारी बात कही। (४५) पुत्रोंकी कुशलवार्ता सुनकर माताएँ प्रसन्न हुई। उस समय दूसरे भी बहुतसे विद्याधर नगरीमें आये। (४६) आकाशमें स्थित विभीषण आदि सब खेचरोंने उस नगरीके घर-घरमें रत्नोंकी वृष्टि की। (४७) उस सुन्दर नगरीमें विद्याधरोंके सब शिल्पियोंने सब मकानों की जमीन रत्न और सोनेसे लीप दी। (४८) उन्होंने शीघ्रही अनेक ऊँचे जिनमन्दिर तथा अष्टापद १. विज्झविय.-मु०। २. रणे य सा---प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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