________________
४४३
७८.३३]
७८. साएयपुरीवएणपव्व तं अज्ज वि एइ न वी, वत्ता संपरिफुडा महं एयं । सुमरन्तियाएँ हियए, सोगमहादारुणं जायं ॥ १९ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, अङ्काओ घत्तिऊण वरवीणं । नाओ उबिग्गमणो, दीहुस्सासे मुयइ विप्पो ॥ २० ॥ भणिया य नारएणं, भद्दे ! छड्डेहि दारुणं सोगं । सव पुत्तस्स असेसं, गन्तूणाऽऽणेमि वत्तमहं ॥ २१ ॥ एव भणिड पयट्टो, वीणा कक्खन्तरे ठवेऊणं । उप्पइय नहयलेणं, लङ्का पत्तो खणद्वेणं ॥ २२ ॥ हियएण मुणइ विप्पो, जइ वत्ता राहवस्स पुच्छेऽहं । तो मे कयाइ दोसं, काहिन्ति निसायरा पावा ॥ २३ ॥ ताए चिय वेलाए, पउमसरे अङ्गओ सह पियाहि । कोलइ जलमज्जणयं, गउ व समयं करेणुहिं ॥ २४ ॥ सो रावणस्स कुसलं, पुच्छन्तो अङ्गयस्स भिच्चेहिं । नीओ पउमसयासं, दहगोवहिओ ति काऊणं ॥ २५॥ अब्बभणं करेन्तो, आसासेऊण पउमणाहेणं । परिपुच्छिओ य अजय ! साह तुम आगओ कत्तो ? ॥ २६ ॥ सो भणइ देव ! निसुणसु, सुयसोगाणलपलित्तहिययाए । जणणोएँ तुज्झ पास, विसज्जिओ नारओ अहयं ॥२७॥ सीही किसोररहिया, कलहयपरिवज्जिया करेणु व । तह सा तुज्झ विओगे, अच्चन्तं दुक्खिया जणणी ॥२८ ॥ विवइण्णकेसभारा, रोवन्ती दुरिखया गमइ कालं । जणणी तुज्झ महाजस!, सोगमहासागरे पडिया ॥ २९ ।। लक्खण ! तुम पि जणणी, पुत्तविओगम्गिदीवियसरीरा । रोवन्ती अइकलणं, कालं चिय दुक्खिया गमइ ॥३०॥ नाऽऽहारे न य संयणे,न दिवा न य सबरीसु न पओसे । खणमवि न उवेन्ति धिई, अञ्चन्तं तुम्ह जणणीओ॥३१॥ सणिण वयणमेयं हलहर-नारायणा सदीणमहा । रोवन्ता उवसमिया. कह कह वि पवंगमभडेहिं ॥ ३२ ॥ तो भणइ नारयं सो, पउमो अइसुन्दरं ववसियं ते । वादाणेणऽम्हं, जणणीणं नीवियं दिन्नं ॥ ३३ ॥
शक्तिके प्रहारसे अभिहत लक्ष्मण कुमार क्या मर गया ? (१८) आज तक भी यह बात स्पष्टरूपसे मेरे पास नहीं आई है। इसे याद करके हृदयमें अत्यधिक दारुण शोक पैदा होता है। (१९)
यह सुनकर ब्राह्मण नारदने गोदमें से सुन्दर वीणा उठा ली और मनमें उद्विग्न होकर वह दीर्घ उच्छवास छोड़ने लगे। (२०) नारदने कहा कि भद्रे! तुम दारुण शोकका त्याग करो। जा करके मैं तुम्हारे पुत्रका समग्र वृत्तान्त लाता हूँ। (२१) इस तरह कहकर और वीणाको बगल में दबाकर नारद आकाशमें उड़े और क्षणार्धमें लंका पहुँच गये। (२२) ब्राह्मण नारदने मनमें सोचा कि यदि रामके बारेमें मैं बात पूछू तब कदाचित् पापी निशाचर मेरा द्वेष करेंगे। (२३) उस समय हथिनियों के साथ क्रीड़ा करनेवाले हाथीकी भाँति अंगद प्रियाओंके साथ पद्मसरोवर में जलस्नानकी क्रीड़ा कर रहा था। (२४) रावणकी कुशल पूछनेवाले उस नारदको, रावणका हित चाहनेवाला है ऐसा समझकर अंगदके भृत्य रामके पास ले गये । (२५) अब्रह्मण्यं-ऐसा बोलनेवाले उस नारदको आश्वासन देकर रामने पूछा कि आर्य ! आप कहाँसे पधारे हैं यह कहें। (२६, उसने कहा कि देव! आप सुनें। पुत्रके शोक रूपी अग्नि से प्रदीप्त हृदयवाली आपकी माताके द्वारा भेजा गया मैं नारद हूँ। (२७) बच्चोंसे रहित मोरनी और हाथीके बच्चेसे वजित हथिनीकी भाँति आपके वियोगसे माता अत्यन्त दुःखित है। (२८) हे महायश! शोकसागर में निमग्न और बाल बिखेरे हुई आपकी दुःखी माता रोकर समय गुजारती है। (२९) लक्ष्मण! पुत्र वियोगरूपी अग्निसे दीप्त शरीरवाली तुम्हारी माता भी अत्यन्त करुणाजनक रूपसे रोती है और दुःखी वह किसी तरह समय बिताती है। (३०) तुम्हारी माताएँ न आहारमें, न सोने में, न दिनमें, न रातमें, न प्रदोषकालमें क्षणभर भी धैर्य धारण करती हैं। (३१) यह कथन सुनकर दीन मुखवाले हलधर और नारायण रोने लगे। बानर-सुभटोंने किसी तरह उन्हें शान्त किया। (३२) तब रामने नारदसे कहा कि तुमने बहुत अच्छा किया। हमारी माताओं
१. ०सयासे, गलगहितो तेहि काउणं--प्रत्य । पवंगममहाभडेहि-प्रत्य० ।
२. •ग्गिदूमिय.-मु.।
३.
सरणे--प्रत्य०।
४. कह कि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org