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________________ ४४५ ७६.५] ७६. राम-लक्खणसमागमपव्वं वरकणयथम्भपउरा, वित्थिण्णा मण्डवा रयणचित्ता । रइया समन्तओ वि य, विजयपडागासु रमणिज्जा ॥५०॥ कञ्चणरयणमयाई, मोत्तियमालाउलाई विउलाई। रेहन्ति तोरणाई, दिसासु सबासु रम्माई ॥ ५१ ॥ सुरवइभवणसमेसुं, लग्गा ण्हवणूसवा जिणहरेसु । नडनट्टगीयवाइय-रवेण अभिणन्दिया अहियं ।। ५२ ॥ तरुतरुणपल्लवुग्गय-नाणाविहकुसुमगन्धपउराइं । छज्जन्ति उववणाई, कोइलभमरोवगीयाइं ॥ ५३ ॥ वावीसु दीहियासु य, कमलुप्पलपुण्डरीयछन्नासु । जिणवरभवणेसु पुणो. रेहइ सा पुरवरी अहियं ॥ ५४ ॥ एवं साएयपुरी, सुरनयरिसमा कया दणुवईहिं । रामस्स समक्खाया, अहियं गमणुस्सुयमणस्स ॥ ५५ ।। अचिन्तियं सयलमुवेइ सोभणं, नरस्स तं सुकयफलस्स संगमे । अहो जणा! कुणह तवं सुसंतयं, जहा सुहं विमलयरं निसेवह ।। ५६ ॥ । इइ पउमचरिए साएयपुरोवगणं नाम अट्ठहत्तर पव्वं समत्तं ।। ७९. राम-लक्खणसमागमपव्वं अह सोलसमे दियहे, कओवयारा पभायसमयम्मि । राहव-सोमित्ति-सिया पुप्फविमाणं समारूढा ॥ १ ॥ सवे वि खेयरभडा, विमाण-रह गय-तुरङ्गमारूढा । रामेण समं चलिया, साएयपुरी नयलेणं ॥२॥ पउमङ्कसन्निविट्ठा, पुच्छइ सीया पई अइमहन्तं । जम्बुद्दीवस्स ठियं, मज्झे किं दीसए एयं ॥ ३ ॥ पउमेण पिया भणिया, एत्थ जिणा सुरवरेसु अहिसित्ता । मेरू नाम नगवरो, बहुरयणजलन्तसिहरोहो ॥४॥ जलहरपब्भारनिभं, नाणाविहरुक्खकुसुमफलपउरं । एयं दण्डारणं, नत्थ तुमं अवहिया भद्दे ! ॥ ५॥ पर्वतके शिखर जैसे हजारों महल बनाए । (४६) उन्होंने उत्तम सोनेके स्तम्भोंसे व्याप्त, विशाल, रत्नोंसे चित्र-विचित्र और विजयपताकाओंसे रमणीय ऐसे मण्डप चारों ओर निर्मित किये। (५०) वहाँ स्वर्ण एवं रत्नमय, मोतीकी मालाओंसे युक्त, विपुल और रम्य तोरण सब दिशाओं में शोभित हो रहे थे। (५१) इन्द्रके महलके जैसे जिनमन्दिरोंमें स्नात्र-उत्सव होने लगे। नट, नृत्य और गाने-बजानेकी ध्वनि द्वारा बहुत ही खुशी मनाई गई।(५२) वहाँ वृक्षों पर उगे हुए कोमल पल्लव एवं नानाविध पुष्पोंकी गन्धसे व्याप्त तथा कोयल एवं भौंरोंकी ध्वनिसे गीतमय उपवन शोभित हो रहे थे। (५३) कमल, उत्पल और पुण्डरीकसे छाई हुई बावड़ियों और दीर्घिकाओंसे तथा जिनवरके मन्दिरोंसे वह नगरी अधिक शोभित हो रही थी। (५४) इस प्रकार राक्षस राजाओं द्वारा साकेत पुरी सुरनगरी जैसी की गई। तब गमनके लिए अत्यन्त उत्सुक मनवाले रामको उसके बारेमें कहा । (५५) पुण्यका फल प्राप्त होने पर मनुष्यको सारी शोभा अचिन्त्य रूपसे प्राप्त होती है। अतः हे मनुष्यों ! सतत तप करो और अतिविमल सुखका उपभोग करो। (१५६) ॥ पद्मचरितमें साकेतपुरीका वर्णन नामक अठहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ । ७९. राम एवं लक्ष्मणका माताओं के साथ समागम इसके पश्चात् सोलहवें दिन प्रभातके समय पूजा करके राम, लक्ष्मण और सीता पुष्पक विमान पर आरूढ़ हुए। (१) सभी विद्याधर-सुभट विमान, हाथी, एवं घोड़ों पर सवार हो आकाशमार्गसे रामके साथ चले। (२) रामकी गोद में बैठी हुई सीताने पतिसे पूछा कि जम्बूद्वीपके मध्यमें स्थित यह अतिविशाल क्या दीखता है ? (३) रामने प्रियासे कहा कि अनेकविध रत्नोंसे प्रकाशित शिखरोंवाले मेरु नामके इस पर्वतपर देवों द्वारा जिनवर अभिषिक्त होते हैं। (४) भद्रे ! बादलोंके समूह १. गाए रम०-प्रत्य० । २. दिवसे-प्रत्य । ३. •त्तिभडा पु०-प्रत्य० । तिसुया पु०-मु.। ४. घरेहि महिं० -प्रत्य.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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