________________
४२८
पउमचरियं
[७५. २०केइ भणन्ति एसा, हवइ गई वरभडाण संगामे । अन्ने जंपन्ति भडा, सत्ती वि हु रामकेसीणं ॥ २० ॥ भञ्जन्ति आउहाई, अवरे घत्तन्ति भूसणवराई। संवेगसमावन्ना, अन्ने गिण्हन्ति पवजं ॥ २१ ॥ एवं घरे घरे चिय, लकानयरीऍ सोगगहियाओ । रोवन्ति महिलियाओ, कलुणं पयलन्तनयणाओ ।। २२ ।। अह तस्स दिणस्सऽन्ते, साहू नामेण अप्पमेयबलो । छप्पन्नसहस्सजुओ, मुणीण लङ्कापुरी पत्तो ॥ २३ ॥ जइ सो मुणी महप्पा, एन्तो लङ्काहिवम्मि जीवन्ते । तो लक्खणस्स पीई, होन्ती सह रक्खसिन्देणं ॥ २४ ॥ जोयणसयं अYणं, जत्थऽच्छइ केवली समुद्देसे । वेराणुबन्धरहिया, हवन्ति निययं नरवरिन्दा ॥ २५ ॥ गयणं जहा अरूवं, चलो य वाऊ थिरा हवइ भूमो । तह केवलिस्स नियमा, एस सहावो य लोयहिओ ॥ २६ ॥ सङ्केण परिमिओ सो, गन्तुं कुसुमाउहे वरुज्जाणे । आवासिओ मुणिन्दो, फायदेसम्मि उवविठ्ठो ॥ २७ ॥ झायन्तस्स भगवओ, एवं घाइक्खएण कम्माणं । रयणिसमयम्मि तइया, केवलनाणं समुप्पन्नं ॥ २८ ॥ एगग्गमणो होउं, तस्साईसयसमूहसंबन्धं । निसुणेहि ताव सेणिय, भण्णन्तं पावनासयरं ।। २९ ।। अह मुणिवसहस्स तया, ठियस्स सोहासणे सुरवरिन्दा । चलिया भिसन्तमउडा, जिणदरिसणउज्जया सबे ॥ ३० ॥ धायइसण्डविदेहे, सुरिन्दरमणे पुरे य पुविल्ले । उप्पन्नो तित्थयरो, तिलोयपुज्जो तहिं समए ।। ३१ ॥ असुरा नाग-सुवण्णा, दीव-समुद्दा दिसाकुमारा य । वाय-ग्गि-विज-थणिया, भवणनिवासी दसवियप्पा ॥ ३२ ॥ किन्नर-किंपुरिस-महोरगा य गन्धब-रक्खसा जक्खा । भूया य पिसाया वि य, अट्टविहा वाणमन्तरिया ॥ ३३ ॥ चन्दा सूरा य गहा, नक्खता तारगा य नायबा । पञ्चविहा जोइसिया, गइरइकामा इमे देवा ॥ ३४ ॥ सोहम्मीसाण-सणंकुमार-माहिन्द-बम्भलोगा य । लन्तयकप्पो य तहा, छट्टो उण होइ नायबो ।। ३५ ॥
अथवा कवच बाँधकर तैयार सुभटोंसे रक्षा नहीं होती। (१६) कई लोग कह रहे थे कि संग्राममें सुभटोंकी यही गति होती है, तो दूसरे भट राम और लक्ष्मणकी शक्तिके बारेमें कह रहे थे। (२०) कई सुभट आयुध तोड़ रहे थे, दूसरे उत्तम भूषण ले रहे थे तो और दूसरे विरक्त होकर प्रव्रज्या ग्रहण कर रहे थे । (२१) इस प्रकार लंकानगरीके घर-घरमें शोकान्वित महिलााँ आँखोंसे आँसू बहाकर करुण स्वरमें रो रही थीं । (२२)
उस दिन के अन्त भागमें अप्रमेयबल नामके साधु छप्पन हजार मुनियोंके साथ लंकापुरीमें आये। (२३) यदि वे महात्मा मुनि लंकाधिप रावणके जीते जी आये होते तो लक्ष्मणकी राक्षसेन्द्र रावणके साथ सन्धि हो जाती । (२४) जिस प्रदेशमें केवली ठहरते हैं वहाँ सौ योजनसे अधिक विस्तारमें लोग वैरभावसे रहित हो जाते हैं । (२५) स्वभावसे ही जैसे आकाश अरूपी है, वायु चल है और पृथ्वी स्थिर है उसी प्रकार लोगोंका हित करना यह केवलीका निश्चित स्वभाव होता है। (२६) संघसे युक्त उन मुनिने कुसुमायुध नामके सुन्दर उद्यानमें जाकर आवास किया। वे निर्जीव प्रदेश में ठहरे। (२७) ध्यान करते हुए भगवान्को घाती-कर्मोंका क्षय होने पर रातके समय केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। (२८) हे श्रेणिक ! तुम पापका नाश करनेवाले उनके अतिशयोंके बारेमें जो कहा जाता है उसे एकाग्र मनसे सुनो । (२६)
जव वे मुनिवर सिंहासन पर स्थित थे तब मुकुटोंसे शोभित सब देव जिनदर्शनके लिए उत्सुक होकर चले । (३०) उस समय धातकी खण्डके पूर्व विदेहमें आये हुए सुरेन्द्ररमण नगरमें त्रिलोकपूज्य तीर्थंकर उत्पन्न हुए । (३१) असुरकुमार, नागकुमार, सुवर्णकुमार, दीपकुमार, समुद्रकुमार, दिक्कुमार, वायुकुमार, अग्निकुमार, विद्युत्कुमार तथा स्तनितकुमार-ये दस प्रकारके भवनवासी देव होते हैं । (३२) किंनर, किंपुरुप, महोरग, गान्धर्व, राक्षस, यक्ष, भूत और पिशाच-ये आठ प्रकारके व्यन्तर देव होते हैं। (३३) चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारे-ये पाँच प्रकारके ज्योतिप्क देव नित्य गतिशील होते हैं। (३४) सौधर्म. ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक तथा छठा लान्तक कल्प जानना चाहिए । (३५) आगे
न पर्व विदेहमें आये हुए सूटककुमार, वायुकुमार, राक्षस, यक्ष, भूत श्री कुमार, द्वाप (३२) किंनर,
किन और तारे-य
कुमार, सुवासी देव हात
चन्द्र,
१. णियमा---प्रत्य० । २. सो, तुंगे कुसु० प्रत्य० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org