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________________ ७५.५१] ७५. इन्दइपमुहणिक्खमणपव्वं ४२६ एत्तो य महासु को, हवद सहस्सार आणओ चेव । तह पाणओ य आरण, अच्चयकप्पो य बारसभो ॥ ३६ ॥ एएसु य कप्पेसुं, देवा इन्दाइणो महिड्डीया । चलिया भिसन्तमउडा, अन्ने वि सुरा सपरिवारा ॥ ३७ ॥ आगन्तूण य नयरे, घेत्तूण जिणं गया सुमेरुगिरिं । अहिसिञ्चन्ति सुरवरा, खीरोयहिवारिकलसेहिं ॥ ३८ ॥ वत्तम्मि य अहिसेए, आहरणविहसियं जिणं काउं । वन्दन्ति सबदेवा, पहट्ठमणसा सपरिवारा ॥ ३९ ॥ एवं कयाभिसेयं, नणणीए अप्पिऊण तित्थयरं । देवा नियत्तमाणा, सरन्ति मुणिकेवलुप्पत्ती ॥ ४० ॥ गय-तुरय-वसह-केसरि-विमाण-रुरु-चमर-वाहणारूढा । गन्तूण पणमिऊण य, साहुं तत्थेव उवविठ्ठा ।। ४१ ।। सोऊण दुन्दुहिरवं, देवाण समागयाण पउमाभो । खेयरवेलपरिकिण्णो, साहुसयासं समल्लीणो ॥ ४२ ॥ तह भाणुकण्ण-इन्दइ-घणवाहण-मरिजि-मयभडादीया । एए मुणिस्स पास, अल्लीणा अड्वरत्तम्मि || ४३ ।। एवं थोऊण मुणी, देवा विज्जाहरा य सोममणा । निसुण न्ति मुणिमुहाओ, विणिग्गयं बहुविहं धम्मं ॥ ४४ ॥ भणइ मुणी मुणियत्थो, संसारे अट्टकम्मपडिबद्धा । जीवा भमन्ति मूढा, सुहाऽसुहं चेव वेयन्ता ॥ ४५ ॥ हिंसाऽलिय-चोरिकाइएसु परजुवइसेवणेसु पुणो । अइलोभपरिणया वि य, मरिऊण हवन्ति नेरइया ॥ ४६ ॥ रयणप्पभा य सक्कर-वालय पङ्कप्पभा य धूमपभा । एत्तो तमा तमतमा, सत्त अहे होन्ति पुढवीओ ॥ ४७ ॥ एयासु सयसहस्सा, चउरासीई हवन्ति नरयाणं । कक्खडपरिणामाणं, असुईणं दुरभिगन्धाणं ॥ १८ ॥ करवत्त-जन्त-सामलि-वेयरणी-कुम्भिपाय-पुडपाया । हण-दहण-पयण-भञ्जण-कुट्टणघणवेयणा सचे ॥ ४९ ।। पज्जलियङ्गारनिहा, हवइ मही ताण सबनरयाणं । तिक्खासु पुणो अहियं, निरन्तरा वज्जसुईसु ॥ ५० ॥ एएसु पावकम्मा, पक्खित्ता तिववेयणसयाई । अणुहोन्ति सुइरकालं, निमिसं पि अलद्धसुहसाया ।। ५१ ॥ महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और बारहवाँ अच्युतकल्प है। (३६) इन कल्पों में इन्द्र आदि बड़ी भारी ऋद्धिवाले देव होते हैं। मुकुटोंसे शोभित वे तथा अन्य देव परिवारके साथ चले । (३७) सुरेन्द्ररमण नामक नगरमें आकर और जिनको लेकर वे सुमेरु-पर्वत पर गये। यहाँ देवोंने क्षीर सागरके जलसे भरे कलशोंसे अभिषेक किया। (३८) अभिषेक पूर्ण होने पर जिनेश्वरको आभूषणोंसे सजाकर मनमें आनन्दित सब देवोंने परिवारके साथ वन्दन किया। (६९) इस तरह अभिषिक्त तीर्थकरको माताको सौंपकर लौटते हुए देवोंको मुनिको केवल ज्ञानकी उत्पत्ति हुई है इसका स्मरण हो आया। (४०) हाथी, घोड़े, वृषभ, सिंह, मृग, चमरी गायके आकारके विमानों और बाहनों पर आरूढ़ वे साधुके पास गये और प्रणाम करके वहीं बैठे। (४१) दुन्दुभिकी ध्वनि और देवोंका आगमन सुनकर विद्याधर-सेनासे घिरे हुए राम साधुके पास आये । (४२) भानुकर्ण, इन्द्रजित, धनवाहन, मरीचि तथा सुभट मय आदे-ये आधी रातके समय मुनिके पास आये। (४३) सौम्य मनवाले देव एवं विद्याधरोंने मुनिकी स्तुति करके मुनिके मुखसे निकला हुआ बहुविध धर्म सुना । (४४) वस्तुतत्त्वको जाननेवाले मुनिने कहाकि आठ कर्मों में जकड़े हुए मूढ जीव शुभ और अशुभका अनुभव करते हुए संसारमें भ्रमण करते हैं। (४५) हिंसा, झूठ, चोरी आदि तथा परस्त्रीसेवनसे और अतिलोभमें ग्रस्त जीव मरकर नैरयिक (नरकके जीव) होते हैं। (४६) रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रमा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा तथा तमस्तमःप्रभा ( महातमःप्रभा)-ये सात नरकभूमियाँ हैं। (१७) इनमें कर्कश परिणामवाले, अशुचि और दुरभिगन्धवाले चौरासी लाख नरकस्थान आये हैं। (४८) वे सब नरकस्थान करवत, यंत्र, शाल्मलिवृक्ष, वैतरणीनदी, कुम्भिपाक, पुटपाक, वध, दहन, पचन, भञ्जन, कुट्टन आदि बड़ी भारी वेदनाओंसे युक्त होते हैं। (४६) उन सब नरकोंकी जमीन जलते अङ्गारों सरीखी और विना व्यवधानके वनकी तीक्ष्ण सइयोंसे अत्यन्त व्याप्त होती हैं । (५०) इनमें फेंके गये पापकर्म करनेवाले जीव निमिपमात्र भी सुख न पाकर सुचिरकाल पर्यन्त सैकड़ों तीव्र दुःख अनुभव करते हैं । (५१) १. मुक्को, सहसारो आपओ तह य चेव मु०। २. ०वलेण सहिओ, साहु०--प्रत्य० । ३. परमगन्धाणं मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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