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७५. इन्दइपमुहणिक्खमणपव्वं गोसीसचन्दणा-ऽगुरु-कप्पूराईसु सुरहिदबेसु । लङ्काहिवं नरिन्दा, सक्कारेउं गया वप्पं ॥ ४॥ पउमसरस्स तडत्थो. पउमाभो भणई अत्तणो सुहडे । मुश्चह रक्खसबसभा, जे बद्धा कुम्भकण्णाई ॥५॥ रामवयणेण एत्तो, नरेहि ते आणिया तहिं सुहडा । मुक्का य बन्धणाओ, भोगविरत्ता तओ जाया ॥६॥ सुहडो य भाणुकण्णो, इन्दइ घणवाहणो य मारीई । मय-दाणवमाईया, हियएण मुणित्तणं पत्ता ॥ ७॥ अह भणइ लच्छिनिलओ, जइ वि हुअवयारिणो भवइ सत्तू । तह वि य पसंसियबो, अहियं माणुन्नओ सुहडो॥ ८ ॥ संथाविऊण भणिया, इन्दइपमुहा भडा निययभोगे । भुञ्जह नहाणुपुवं, सोउयेयं पमोत्तणं ॥ ९ ॥ भणियं तेहि महायस !, अलाहि भोगेहि विससरिच्छेहिं । घणसोगसंगएहिं, अणन्तसंसारकरणेहिं ॥ १० ॥ रामेण लक्खणेण य, भण्णन्ता वि य अणेगउवएसे ! न य पडिवन्ना भोगे, इन्दइपमुहा भडा बहवे ॥ ११ ॥ अवयरिऊण सरवरे, ण्हाया सबै वि तत्थ विमलजले । पुणरवि य समुत्तिण्णा, गया य निययाइं ठाणाई॥ १२ ॥ वणियाण मारियाण य, भडाण लोगो कहासु आसत्तो । लङ्कापुरीऍ चिट्ठइ, वियलियवावारकम्मन्तो ॥ १३ ॥ केई उवालभन्ता, रुवन्ति सुहडा दसोणणगुणोहं । अन्ने विरत्तभोगा, संजाया तक्खणं चेव ॥ १४ ॥ केइ भडा अइघोरं, संसारं निन्दिऊण आढत्ता । अन्ने पुण रायसिरी, भणन्ति तडिचञ्चलसहावा ॥ १५ ॥ दीसइ पञ्चक्खमिणं, सुहमसुहफलं रणम्मि सुहडाणं । भङ्गेण य विजएण य, समसरिसबलाण वि इहेव ॥ १६ ॥ थोवा वि सुकयपुण्णा, पावन्ति जयं रणम्मि नरवसभा । बहवो वि कुच्छियतवा, भजन्ति न एत्थ संदेहो ॥ १७॥ अबलस्स बलं धम्मो, रक्खइ आउं पि सुचरिओ धम्मो । धम्मो य हवइ पक्खो, सबत्तो पेच्छए धम्मो ॥ १८ ॥ आसेसु कुञ्जरेसु य, भडेसु सन्नद्धबद्धकवएसु । न य रक्खिज्जइ पुर्व, पुण्णेहिं विवजिओ पुरिसो ॥ १९ ॥
सुगन्धित पदार्थोसे लंकाधिपका सत्कार करनेके लिए वे राजा सरोवरके किनारे पर गये। (४) पद्मसरोवरके तट प र रामने अपने सुभटोंसे कहा कि कुम्भकर्ण आदि जो सुभट बाँथे गये हैं उन्हें छोड़ दो। (५) रामके कहनेसे आदमियों द्वारा वहाँ लाये गये और बन्धनसे मुक्त किये गये। तब वे भोगोंसे विरक्त हुए। (६) भानकारी घनवाहन, मरीचि, मयदानव आदि सुभटोंने मनमें मुनिधर्म अंगीकार किया । (७) तब लक्ष्मणने कहा कि यद्यपि शत्र अपकारी होता है, फिर भी सम्माननीय सुभटकी तो विशेप प्रशंसा करनी चाहिए। (८) इन्द्रजीत आदि सुभटों को सान्त्व देकर उसने कहा कि शोक एवं उद्वेगका परित्याग करके तुम पहलेकी भाँति अपने भोगोंका उपभोग करो।(8) उन्होंने कि, हे महायश ! विप सदृश, बड़े भारी दुःखसे युक्त और अनन्त-संसारके कारण भूत भोग अब बस हैं। (१०)
राम और लक्ष्मणके द्वारा अनेक उपदेश दिये जाने पर भी इन्द्रजित आदि बहुत-से सुभटोंने भोगका स्वीकार नहीं किया । (११) सरोवरमें उतरकर उसके निर्मल जलमें सब नहाये। फिर बाहर निकलकर वे अपने-अपने स्थानों पर गये । (१२)
व्यापार और कर्मों का परित्याग करके लंकापुरीमें लेग घायल और मरे हुए सुभटोंकी कथामें आसक्त थे। (१३) कई सुभट उपालम्भ देते हुए रावणके गुण-समूह पर रो रहे थे, तो दूसरे तत्काल ही भोगोंसे विरक्त हुए। (१४) कई सभी अति-भयंकर संसारकी निन्दा करने लगे तो दूसरे कहने लगे कि राजलक्ष्मी बिजलीकी भाँति चंचल स्वभाववाली होती है। (१५) यहाँ युद्ध में ही समान बलवाले सुभटोंके विनाश और विजयसे शुभ और अशुभ फल प्रत्यक्ष देखा जाता है। (१६) इसमें सन्देह नहीं कि पुण्यशाली राजा थोड़े होने पर भी युद्धमें जय पाते हैं, जबकि कुत्सित तप करनेवाले बहत होने पर भी बिनष्ट होते हैं। (१७) निर्बलका बल धर्म है। भलीभाँति आचरित धर्म आयुषकी भी रक्षा करता है। धर्म ही अपनी तरफदारी करनेवाला मित्र होता है। धर्म चारों तरफ देखता है। (१८) पूर्वके पुण्यसे विवर्जित पुरुषकी अश्व, हाथी
१. निययगेहे--प्रत्य० ।
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