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________________ ४२६ पउमचरियं [७४. ३४तं पुच्छइ नरवसभो, सिट्ठो हं तुज्झ केण सयराह ? । सा भणइ मुणि वरेणं, कित्तिधरेणं च मे कहिओ ॥ ३४ ॥ ईसा-रोसवसगओ, भणइ मुणी जइ तमं मुणसि चित्तं । तो मे कहेहि सब, किं मज्झ अवट्टियं हियए ? ॥ ३५ ॥ तं भणइ ओहिनाणी, तुज्झ इमं भद्द ! वट्टए हियए । जह किल कह मरणं मे, होहिइ ? कइया व ? कत्तो वा ? ॥३६॥ भणिओ य सत्तमदिणे, असणिहओ तत्थ चेव मरिऊणं । उप्पज्जिहिसि महन्तो, कीडो विट्ठाहरे नियए ॥ ३७ ॥ सो आगन्तूण सुयं, भणइ य पीयंकरं तुमे अहयं । अवसेण घाइयबो, कीडो विट्ठाहरे थूलो ॥ ३८ ॥ अह सो मरिऊण तहिं उप्पन्नो पेच्छिऊण तं पुतं । मरणमहाभयभीओ, पविसइ विट्ठाहरे दूरं ॥ ३९ ॥ पीयंकरो मुणिन्दं, पुच्छइ सो तत्थ कीडओ दूरं । मारिज्जन्तो नासइ, भयवं ! केणेव कज्जेणं ? ॥ ४० ॥ अह भणइ साहवो तं, मुञ्च विसायं इहेव संसारे । जो जत्थ समुष्पज्जई, सो तत्थ रई कुणइ जीवो ॥ ४१ ॥ पीयंकरस्स चरियं सुणिऊण एयं, तोसं पर उवगया वि हु खेयरिन्दा। लङ्काहिवस्स अणुओ पडिबोहिओ सो, जाओ पुराणविमलामलसुद्धबुद्धी ॥ ४२ ॥ ॥ इइ पउमचरिए पीयंकरउवक्खाणयं नाम चउहत्तरं पव्वं समत्तं ।। ७५. इन्दइपमुहणिक्खमणपव्वं अह भणइ पउमनाहो, मरणन्ताई हवन्ति वेराणि । लङ्काहिवस्स एतो, कुणह लहुं पेयकरणिज्जं ॥ १ ॥ भणिऊण एवमेयं, सधे वि विहीसणाइया सुहडा । पउमेण सह पयट्टा, गया य मन्दोयरी नत्थ ॥ २ ॥ जुवइसहस्सेहि समं, रोवन्ती राहवो मइपगम्भो । वारेइ महुरभासी, उवणय-हेऊ-सहस्सेहिं ॥ ३ ॥ अकस्मात् मेरे बारेमें तुझे कहा था ? उसने कहा कि मुनिवर कीर्तिधरने मुझे कहा था। (३४) कुछ क्रुद्ध होकर उसने मुनिसे कहा कि यदि तुम मनकी बात जान सकते हो तो मेरे मन में क्या है यह सब मुझे कहो । (३५) अवधिज्ञानीने उसे कहा कि हे भद्र ! तुम्हारे हृदयमें यह है कि मेरा मरण कैसे होगा, कब होगा और किससे होगा ? (३६) उन्होंने कहाकि सातवें दिन विजलीसे आहत होकर तुम वहीं मर जाओगे और अपने शौचालयमें बड़े कीड़ेके रूपमें पैदा होगे । (३७) उसने वहाँसे आकर अपने पुत्र प्रियंकरसे कहा कि तुम शौचालयमें मोटे कीड़ेको अवश्य ही मार डालना । (३८) बादमें मरकर वह वहीं पैदा हुआ। उस पुत्रको देखकर मरणके महाभयसे भीत वह शौचालयमें दूर घुस गया। (३६) उस प्रियंकरने मुनिसे पूछा कि, हे भगवन् ! मारने पर वह कीड़ा वहाँसे किस कारण दूर भाग गया ? (४०) इस पर उस साधुने कहा कि तुम विषादका त्याग करो। इस संसारमें जो जीव जहाँ पैदा होता है वह वहाँ प्रेम करता है । (४१) प्रियंकरका यह चरित सुनकर खेचरेन्द्र अत्यन्त संतुष्ट हुए। लंकाधिप रावणका वह छोटा भाई विभीषण प्रतिबोधित होने पर पहलेकी-सी विमल, अमल और शुद्ध बुद्धिवाला हुआ। (४२) । पद्मचरितमें प्रियंकरका उपाख्यान नामक चौहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ। ७५. इन्द्रजित आदिका निष्क्रमण तत्पश्चात् रामने कहा कि वैर मरण तक होते हैं, अतः अब लंकेश रावणका प्रत्यकर्म जल्दी करो। (१) ऐसा कहकर विभीषण आदि सभी सुभट रामके साथ जहाँ मन्दोदरी थी वहाँ गये । (२) हज़ारों युवतियोंके साथ रोती हुई उसको मतिप्रगल्भ और मधुरभापी रामने हज़ारों दृष्टान्त और तर्क द्वारा रोका । (३) गोशीर्पचन्दन, अगुरु और कर्पूर आदि १. वरेणं णाणधरेणं--प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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