________________
पउमचरियं
[७१. ६३अह तस्स रक्खसत्थं, विसज्जिय रावणेण अइघोरं । धम्मत्थेण पणासइ, तं दसरहनन्दणो सिग्धं ॥ ६३ ॥ लच्छीहरेण सेणिय! विसज्जियं इन्धणं महासत्थं । पडिइन्धणेण नीयं. दिसोदिसिं रक्खसिन्देणं ॥ ६४ ॥ अह रावणेण सिग्धं, तमनिवहत्यन्धयारियदिसोहं । विमलं करेइ तं पि य, दिवायरत्येण सोमित्ती ॥ ६५॥ फणिमणिकिरणुज्जलियं, उरगत्थं रावणेण विक्खित्तं । तं लक्खणेण नीयं, दूरं गरुडत्थजोएणं ।। ६६ ।। मुश्चइ विणायगत्थं, रक्खसणाहस्स लक्खणो समरे । तं वारेइ महप्पा, तिकूडसामी महत्थेणं ॥ ६७ ॥ भग्गे विणायगत्थे, सरेहि लच्छीहरो तिकूडवई । छाएइ सेन्नसहियं, सो वि य तं बाणवरिसेणं ॥ ६८ ॥
संगामसूरा जणियाहिमाणा, जुज्झन्ति अन्नोन्नजयत्थचित्ता ।
घोरा नरा नेव गणन्ति सत्थं, न मारुयग्गि विमलं पि भाj ॥ ६९ ॥ ।। इय पउमचरिए लक्खण-रावणजुझ नाम एगसत्तरं पव्वं समत्तं ।
७२. चक्करयणुप्पत्तिपव्वं खिन्नाण दिज्जइ जलं, तिसाभिभूयाण सीयलं सुरहिं । भत्तं च बहुवियप्पं, असणकिलन्ताण सुहडाणं ॥ १ ॥ सिञ्चन्ति चन्दणेणं, सुहडा वणवेयणापरिग्गहिया । आसासिज्जन्ति पुणो, देहुवगरणेसु बहुएसु ॥ २ ॥ लङ्काहिवेण समयं, सोमित्तिसुयस्स वट्टए जुझं । विविहाउहविच्छड्डु, विम्हयणिजं सुरवराणं ॥ ३ ॥
गन्धवकिन्नरगणा, अच्छरसहिया नहट्टिया ताणं । मुञ्चन्ति कुसुमवासं, साहुक्कारेण वामीसं ॥ ४ ॥ राक्षसास्त्र उसके ऊपर छोड़ा। लक्ष्मणने शीघ्र हो उसे धर्मात्रसे नट किया । (६३) हे श्रेणिक ! तब लक्ष्मणने इन्धन नामका महाशस्त्र फेंका। राक्षसेन्द्र रावणने प्रति-इन्धन अस्त्र द्वारा उसे दसों दिशाओंमें बिखेर दिया। (६४) तव रावणने शीघ्रही तमोनिवह नानक असे दिशाओंको अन्धकारेत कर दिया। लक्ष्मणने दिवाकरास्त्रसे उसे भी निर्मल बना दिया। (६५) तब सर्पोके मणियोंकी किरणोंसे उज्ज्वल उरगान रावणने फेंका। गरुड़ास्त्रके प्रयोगसे उसे भी लक्ष्मणने दूरकर दिया । (६६) लक्ष्मणने युद्ध रावणके ऊपर विनायकाल फेंका। त्रिकूटस्वामी महात्मा रावणने उसका महारूसे निवारण किया। (६७) विनायकालका नारा होनेपर लक्ष्मणने सैन्यसहित त्रिकूटपतिको वाणोंसे आच्छादित कर दिया। उसने भी उसे (लक्ष्मणको) वारणोंकी वासे ढंक दिया। (६८) अभिमानी तथा मनमें एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छावाले युद्धवीर लड़ते हैं। भयंकर मनुष्य न तो शस्त्रको, न वायुको, न अग्निको और न विमल सूर्यको ही गिनते है। (६६)
।। पद्मचरितमें लक्ष्मण और रावणका युद्ध नामक इकहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ ।
७२. चक्ररत्नकी उत्पत्ति तृषासे अभिभूत खिन्न सुभटोंको जल दिया जाता था, भोजनसे पीड़ित सुभटोंको अनेक प्रकारका भोजन दिया जाता था, व्रणकी वेदनावाले सुभट चन्दनसे सींचे जाते थे तथा शरीरके बहुत-से उपकरणों द्वारा उन्हें आश्वासन दिया जाता था। (१-२) अनेक प्रकारके आयुध जिसमें फेके जाते हैं और जो देवताओंके लिए भी आश्चर्यजनक था ऐसा लंकाधिपके साथ लक्ष्मणका युद्ध हो रहा था। (३) आकाशमें स्थित अप्सराओंके साथ गन्धर्व और किन्नरगण भी साधुकारसे युक्त कुसुमवृष्टि कर रहे थे। (४)
१. तिफूडवई-प्रत्य० । २. वियम्भणिज-मु.। ३. पत्थिया-प्रत्य० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org