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________________ ४१७ ७१. ६२ ] ७१. लक्खणरावणजुज्झपव्वं आलोइऊण हणुयं, विरह अह धाइओ जणयपुत्तो। तस्स वि य सन्दणवरो, मएण भग्गो सरवरेहिं॥४७॥ सयमेव वाणरवई, समुट्ठिओ तस्स रोसपज्जलिओ। सो विमएण निरत्थो, कओ य धरणीयले पडिओ ॥ ४८ ॥ एत्तो मएण समयं, विहीसणो जज्झिउं समाढत्तो । छिन्नकवया-ऽऽयवत्तो, कओ य बाणाहयसरीरो ॥ ४९ ॥ पयलन्तरुहिरदेह, बिहीसणं पेच्छिऊण पउमाभो । केसरिरहं विलग्गो, छाएइ मयं सरसएहिं ॥ ५० ॥ रामसरनियरघत्थं, भयविहलविसंलं मयं द8 । सयमेव रक्खसवई, समुट्टिओ कोहपज्जलिओ ॥ ५१ ॥ सो लक्खणेण दिट्ठो, भणिओ रे दुट्ठ ! मज्झ पुरहुत्तो । ठा-ठाहि पाव तक्कर !, ना ते जीयं पणासेमि ॥ ५२ ॥ अह भणइ लक्खणं सो, किं ते हं रावणो असुयपुबो । निस्सेसपुहइनाहो, उत्तमदिवारुहो लोए ? ॥ ५३ ॥ अज्ज वि मुञ्चसु सीयं, अहवा चिन्तेहि निययहियएणं । किं रासहस्स सोहइ, देहे रइया विजयघण्टा ? ॥ ५४ ॥ देवा-ऽसुरलद्धजसो, अयं तेलोक्पायडपयावो । सह भूमिगोयरेणं, अहियं लजामि जुज्झन्तो ॥ ५५ ॥ नइ वा करहि जुझं, निविण्णो निययजीवियोणं । तो ठाहि सवडहुत्तो, विसहसु मह सन्तियं पहरं ॥ ५६ ।। तो भणइ लच्छिनिलओ, जाणामि पहुतणं तुम सबं । नासेमि अज सिग्धं, एयं ते गज्जियं गरुयं ॥ ५७ ।। एवं भणिउं सरोसो, चावं घेत्तण बाणनिवहेणं । छाएऊण पवत्तो, तुङ्ग पिव पाउसे मेहो ॥ ५८ ॥ नमदण्डसन्निहिं, सरेहि लच्छीहरो गयणमग्गे । बलपरिहत्थुच्छाहो, दहमुहबाणे निवारेइ ॥ ५९ ॥ दसरहपुत्तेण कओ, रयणासवनन्दणो वियलियत्थो । ताहे मुयइ दणुबई, आरुट्ठो वारुणं अत्थं ॥ ६० ॥ तं लक्खणो खणेणं, नासेइ समीरणत्थजोएणं । मुञ्चइ लङ्काहिवई, अग्गेयं दारुणं अत्थं ॥ ६१ ।। नालासहस्सपउर, दहमाणं तं पि लच्छिनिलएणं । धारासरेहि सिग्छ, विज्झवियं वारुणत्थेणं ॥ ६२ ॥ देखकर जनकपुत्र भामण्डल दौड़ा। उसका रथ भी मयने उत्तम बाणोंसे तोड़ डाला। (४७) रोपसे प्रज्वलित वानरपति सुग्रीव स्वयं ही उसके आगे खड़ा हुआ । मयके द्वारा निरस्त किया गया वह भी पृथ्वीपर गिर पड़ा। (४८) तब मयके साथ विभीषण युद्ध करने लगा। कवच और छत्र जिसके तोड़ डाले गये हैं ऐसा वह भी बाणोंसे आहत शरीरवाला किया गया। (४६) जिसके शरीरमेंसे रक्त बह रहा है ऐसे उस विभीषण को देखकर सिंहरथपर बैठे हुए रामने सैकड़ों बाणोंसे मयको आच्छादित कर दिया । (५०) रामके बाण-समूहसे आक्रान्त और भयसे आकुल-व्याकुल मयको देखकर क्रोधसे जलता हुआ रावण स्वयं ही उठ खड़ा हुआ। (५१) __ लक्ष्मणने उसे देखकर कहा कि, रे दुष्ट ! पापी ! तस्कर ! मेरे आगे ठहर, जिससे मैं तेरे जीवनका नाश करूँ। (५२) तब उसने लक्ष्मणसे कहा कि समग्र पृथ्वीके स्वामी और उत्तम एवं दिव्य पदार्थोंसे लोकमें पूजनीय ऐसे मुझ रावणके बारेमें क्या तूने पहले नहीं सुना ? (५३) लक्ष्मणने कहा-आज ही सीताको छोड़ दो, अथवा अपने हृदयमें सोचो कि गधेके शरीरपर बाँधा गया विजयघण्ट क्या अच्छा लगता है ? (५४) इसपर रावणने कहा-देवों और असुरोंमें यश प्राप्त करनेवाला और तीनों लेकोंमें जिसका प्रताप छाया हुआ है ऐसा मैं जमीनपर चलनेवालोंके साथ लड़नेमें बहुत लजित होता हूँ। (५५) अपने प्राणोंसे उदासीन होकर यदि तू युद्ध करना चाहता है तो मेरे समक्ष खड़ा हो और मेरे प्रहारोंको सहन कर । (५६) तब लक्ष्मणने कहा कि मैं तेरा सारा प्रभुत्व जानता हूँ। आज तेरी इस भारी गर्जनाको शीघ्र ही नष्ट करूँगा। (५७) ऐसा कहकर रोपयक्त उसने धनुष उठाया और वर्षाकालमें पर्वतको छानेवाले मेघकी भाँति बाणोंसे उसे छाने लगा। (५८) बल एवं परिपूर्ण उत्साहवाला लक्ष्मण यमदण्ड सरीखे बाणोंसे रावगके बाणोंका आकाशमार्गमें निवारण करने लगा । (५६) दशरथके पुत्र लक्ष्मणने रत्नश्रवाके पुत्र रावणको अस्ररहित बना दिया। तब क्रुद्ध राक्षसपतिने वारुण अस्त्र छोड़ा। (६०) समीरणास्त्रका प्रयोग करके लक्ष्मणने उसका नाश किया। तब लंकाधिपतिने भयंकर आग्नेय अस्त्र छोड़ा। (६१) हजारों ज्वालाओंसे युक्त जलते हुए उस अस्त्रको भी जलधारारूपी बाणोंसे युक्त वारुणास्त्रसे बुझा दिया। (६२) तब रावणने अतिभयंकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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