________________
४१६
पउमचरियं
[७१. ३० खणखणखण ति सद्दो, कत्थइ खग्गाण आवडन्ताणं । विसिहाण तडतडरवो, निवडन्ताणं गयनेसु ॥ ३० ॥ मणिकुण्डलुज्जलाइं, पडन्ति सीसाइं मउडचिन्धाइं । नचन्ति कबन्धाई, रुहिरवसालित्तगत्ताई ॥ ३१ ॥. अन्नो अन्नं पहणइ, अन्नो अन्नं भुयाबलुम्मत्तो । आयड्डिऊण निहणइ, नोहा जोहं करी करिणो ॥ ३२ ॥ उभयबलेसु भडेहिं, उप्पयनिवयं रणे करेन्तेहिं । गयणङ्गणं निरुद्धं, पाउसकाले व मेहेहिं ॥ ३३ ॥ एयारिसम्मि जुज्झे, सुय-सारणमाइएसु सुहडेसु । मारीजीण य भग्गं, सेन्नं चिय वाणरभडाणं ॥ ३४ ॥ सिरिसेलेण बलेण य, भूयनिणाएण तह य नोलेणं । कुमुयाइवाणरेहि, भग्गं चिय रक्खसाणीयं ॥ ३५ ॥ सुन्दो कुम्भ निसुम्भो, विक्कम कमणो य जम्बुमाली य । मयरद्धओ य सूरो, असणिनिघायाइणो सुहडा ॥ ३६॥ एए रक्खसवसभा, निययबलुच्छाहकारणुज्जुत्ता । वाणरभडेहि समय, जुझं काऊण आढत्ता ॥ ३७ ।। भुयवरबलसम्मेया, वियडा कुडिलङ्गया सुसेणा य । चण्डुम्मियङ्गयाई, समुट्ठिया कइवरा एए ॥ ३८ ॥ रक्खस-कइद्धयाणं, जुझं अइदारुणं समावडियं । अन्नोन्नकरग्गाहं, घणसत्थपडन्तसंघायं ॥ ३९ ॥ एयन्तरम्मि हणुओ, गयवरजुत्तं रह समारुहिउं । लोलेइ रक्खसबलं, पउमसरं चेव मत्तगओ ॥ ४० ॥ एक्कण तेण सेणिय!, सूरेण महाबलं निसियराणं । गरुयपहाराभिहयं, भयजरगहियं कयं सर्व ।। ४१ ॥ तं पेच्छिऊण सेन्नं, भयविहलविसंटुलं मओ रुट्ठो । हणुयस्स समावडिओ, मुश्चन्तो आउहसयाई ॥ ४२ ॥ सिरिसेलेण वि सिग्घ, आयण्णाऊरिएसु बाणेसु । कञ्चणरहो विचित्तो, तुङ्गो मयसन्तिओ भग्गो ॥ ४३ ॥ अन्न रहं विलम्गो, मयराया जुज्झिउं समाढत्तो । सो वि य सिरिसेलेणं, भग्गो निसियद्धयन्देहिं ॥ ४४ ॥ विरह दट्टण मयं, दसाणणोऽणेयरूवविजाए । सिग्धं विणिम्मिय रहं, ससुरस्स तओ समप्पेइ ॥ ४५ ॥ सो तत्थ सन्दणवरे, आरुहिऊणं मओ सरसएहिं । विरह करेइ हणुर्य, तक्खणमेचेण आरुट्टो ॥ ४६॥
और गिरते हुए बाणोंका आकाशमें तड्-तड् शब्द होने लगा। (३०) मणिमय कुण्डलोंसे उज्ज्वल तथा मुकुट धारण किये हए सिर गिरने लगे और रुधिर एवं चर्बीसे लिप्त अंगवाले धड़ नाचने लगे। (३१) कोई एक योद्धा दूसरेको मारता था, भुजाओंके बलसे उन्मत्त दूसरा किसी दूसरेको मारता था। योद्धा योद्धाको और हाथी हाथीको खींचकर मारते थे। (३२) दोनों सेनाओंमें ऊपर कूदते और नीचे गिरते हुए सुभटोंसे आकाश, वर्षाकालमें बादलोंकी तरह, छा गया । (३३)
. ऐसे युद्ध में शुक, सारण आदि सुभटों तथा मारीचिने वानर योद्धाओंका सैन्य छिन्न-भिन्न कर डाला। (३४) हनुमान, बल, भूतनिनाद तथा नील और कुमुद आदि वानरोंने राक्षस सेनाको छिन्न-भिन्न कर डाला । (३५) सुन्द, कुम्भ, निसुम्भ, विक्रम, क्रमण, जम्बूमाली, मकरध्वज, सूर्य, अशनि और निर्यात प्रादि-ये राक्षसोंमें वृषभके समान श्रेष्ठ तथा अपने-अपने बल एवं उत्साहके कारण उद्यत सुभट वानर योद्धाओंके साथ युद्ध करनेमें प्रवृत्त हुए। (३६-३७) भुजबर, बल, सम्मेत, विकट, कुटिल, अंगद, सुषेण, चण्डोर्मि तथा अंग आदि-ये कपिवर उठ खड़े हुए। (३८) राक्षस और कपिध्वजोंके बीच एक-दूसरे के साथ जिसमें हाथापाई हो रही है तथा जिसमें बहुत-से शस्त्रोंका समूह गिर रहा है ऐसा अतिभयंकर युद्ध होने लगा। (३६)
___उस समय हाथीसे जुते रथमें सवार हो हनुमान, जिस भाँति मत्त हाथी पद्मसरोवरका विलोडन करता है उस भाँति, राक्षस सेनाका विलोडन करने लगा। (१०) हे श्रेणिक ! उस अकेले शूरवीरने राक्षसोंके समग्र महासैन्यको भारी प्रहारोंसे पीटकर भयरूपी ज्वरसे ग्रस्तकर दिया। (४१) उस सेनाको भयसे विकल और विह्वल देख क्रुद्ध मय सैकड़ों आयुध छोड़ता हुआ हनुमानके सम्मुख आया। (४२) हनुमानने भी शीघ्र ही कानतक खींचे हुए बाणोंसे मयका विशाल और विचित्र स्वर्णरथ तोड़ डाला । (४३) दूसरे रथपर चढ़ा हुआ मय राजा युद्ध करने लगा। तीक्ष्ण अर्धचन्द्र बाणोंसे उसे भी हनुमानने तोड़ डाला। (४४) मयको रथहीन देखकर रावणने अनेकरूपिणी विद्यासे शीघ्र ही रथ बनवाकर ससुरको दिया। (४५) उस उत्तम रथपर आरूढ़ हो क्रुद्ध मयने सैकड़ों बाणोंसे तत्क्षण ही हनुमानको रथहीन कर दिया। (४६) हनुमानको रथहीन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org