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७२. चक्करयणुपत्तिपव्यं
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विज्जाहरस् ताव, दुहियाओ चन्दवणस्स नहे । दिवविमाणत्थाओ, अट्ठ जणीओ सुरूवाओ ॥ ५॥ मयहरयपरिमियाओ, कन्नाओ अच्छरेहि भणियाओ । साहेह कस्स तुम्हे, दुहियाओ इहं पवन्नाओ ? ॥ ६॥ साहन्ति ताण ताओ, अम्ह पिया चन्दवद्धणो नामं । वइदेहीसंवरणे, दुहियासहिओ गओ मिहिलं ॥ ७ ॥ सो लक्खणस्स अम्हे, दाऊणं पत्थिओ निययगेहं । तत्तो पभूइ एसो, हिययम्मि अवट्टिओ निययं ॥ ८ ॥ सो एस महाघोरे संगामे संसयं समावन्नो । न य नज्जइ कह वि इमं, होहइ दुहियाओ ? तेणऽम्हे ॥ ९ ॥ लच्छीहरस्स एत्थं, ना होही हिययवल्लहस्स गई। सा अम्हाण वि होही, नियमा अट्ठण्ह वि जणीणं ॥ १० ॥ सोऊण तास, उड्डो लक्खणो पलोयन्तो । भणिओ य बालियाहिं, सिद्धत्थो होहि कज्जेसु ॥ सोऊन ताण सद्दं, ताहे संभरइ दहमुहो अत्थं । सिद्धत्थनामधेयं, घत्तर लच्छीहरस्सुवरिं ॥ रामकणिट्टेण तओ, तं विग्धविणायगत्थनोएणं । नीयं विहलपयावं, संगाममुहे अभीएणं ॥ नं नं मुञ्चइ अत्थं, तं तं छेत्तूण लक्खणो धीरो । छाएइ सरवरेहिं, रेवि ब सयलं दिसायक्कं ॥ एत्थन्तरम्मि सेणिय !, बहुरूवा आगया महाविज्जा । लङ्काहिवस्स जाया, सन्निहिया तत्थ संगामे ॥ अह लक्खणेण छिन्नं, सीसं लङ्काहिवस्स संभूयं । छिन्नं पुणो पुणो च्चिय, उप्पज्जइ कुण्डलाभरणं ॥ छिन्नम्मि उत्तिमङ्गे, एक्के दो होन्ति उत्तिमङ्गाई । उक्कत्तिपसु तेसु य, दुगुणा दुगुणा हवइ वुड्डी ॥ छिन्नं च भुयाजुयलं, दोण्णि वि जुयलाई होन्ति बाहाणं । छिन्नेसु तेसु वि पुणो, नायइ दुगुणा भुयावुड्डी वरमउडमण्डिएहिं सिरेहि छिन्नेहि नहयलं छन्नं । केऊरभूसियासु य, भुयासु एवं च सविसेसं ॥ असि-कणय-चक्क-तोमर-कुन्ताइ अणेय सत्थसंघाए । मुञ्चइ रक्खसणाहो, बहुविवाहासहस्सेहिं ॥
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उस समय चन्दवर्धन विद्याधरकी सुन्दर आठ पुत्रियाँ आकाशमें दिव्यविमान में बैठी हुई थीं। (५) कंचुकियों से घिरी हुई उन कन्याओं से अप्सराओंने पूछा कि तुम किसकी पुत्रियाँ हो और किसके द्वारा अंगीकृत की गई हो । (६) उन्होंने उनसे कहा कि हमारे पिताका नाम चन्द्रवर्धन है। सीताके स्वयंवर में वह पुत्रियों के साथ मिथिला गये थे । (७) हमें लक्ष्मणको देकर वह अपने घर लौट आये। तबसे यह हमारे हृदयमें दृढ़ रूपसे अवस्थित हैं । (८) वह इस महाघोर संग्राम में संशयको प्राप्त हुए हैं। क्या होगा यह जाना नहीं जाता, इस कारण हम दुःखी हैं । ( ६ ) हृदयवल्लभ लक्ष्मणकी जो यहाँ गति होगी वह हम आठों बहनोंकी भी नियमतः होगी । (१०) उनका शब्द सुनकर ऊपर मुँह उठाकर देखते हुए लक्ष्मणने उन स्त्रियोंसे कहा कि कार्य में मैं सिद्धार्थ रहूँगा । (११) उनको कहे गये शब्दको सुनकर raat सिद्धार्थ नामक अस्त्रका स्मरण हो आया। उसने वह लक्ष्मणके ऊपर फेंका। (१२) संग्राम में निडर लक्ष्मण तब विघ्नविनायक नामक अरू के योगसे उसे प्रतापहीन बना डाला । (१३) रावण जो जो अरु छोड़ता था उसे विनष्ट करके धीर लक्ष्मणने सूर्य की भाँति दिशाचक्रको वाणोंसे छा दिया । (१४)
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श्रेणिक ! तब बहुरूपा महाविद्या आई । वह उस संग्राम में लंकाधिप रावण के समीप में स्थित हुई । (१५) इसके बाद लक्ष्मणके द्वारा रावणका सिर काट डालने पर वह पुनः उत्पन्न हुआ । मस्तकको पुनः पुनः काटने पर भी कुण्डलका आभरणवाला वह पुनः पुनः उत्पन्न होता था । (१६) एक सिर काटने पर दो सिर होते थे। दोनोंको काटने पर दुगुनी वृद्धि होती थी । (१७) दोनों भुजाएँ काटने पर बाहुओं की दो जोड़ी हो जाती थी । उन्हें काटने पर पुनः भुजाओं की दुगुनी वृद्धि होती थी । (१८) उत्तम मुकुटोंसे मण्डित छिन्न मस्तकोंसे आकाश छा गया। केयूरसे विभूषित भुजाओंसे ऐसा सविशेष हुआ । (१६) तलवार, कनक, चक्र, तोमर तथा भाले आदि अनेक शोंका समूह रावण नाना प्रकारकी अपनी हजारों भुजाओंसे छोड़ता था । (२०) उस आते हुए श्रायुधसमूहको बाणोंसे काटकर लक्ष्मण विरोधी शत्रुको बाणोंसे
१. रिवुसिनं नं दिसा० - प्रत्य० । २. पुणरवि अक्षं सीसं विजाए तक्खणं चेव - प्रत्य० । ३. एसु दोसु वि दु- मु० ।
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