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________________ ३९८ पउमचरियं २३ ॥ २४ ॥ दारेसु पुण्णकलसा, ठविया दहि- खीर - सप्पिसंपूण्णा । वरपउमपिहियवयणा, निणवरपूयाभिसेयत्थे ॥ झल्लर- हुडुक्क - तिलिमाउलाई पडुपडह - मेरिपउराईं । वज्जन्ति निणहरेहिं, जलहरघोसाईं तूराहं ॥ नयरीऍ भूसणं पिव, भवणालिसहस्समज्झयारत्थं । छज्जइ दसाणणहरं तुङ्गे कइलाससिहरं व ॥ तस्स विय समल्लीणं, तवणिज्जुज्जलविचित्तभत्तीयं । निणसन्तिसामिभवणं, थम्भ सहस्साउलं रम्मं ॥ उवसोहियं समन्ता, नाणाविहरयणकुसुमकयपूयं । विज्जाऍ साहणट्टे, पविसइ रावणो धीरो ॥ पडुपडहतूरबहुविह-खेण संखोहियं व तेल्लोकं । ण्हवणाहिसेयवण्णय-रएण गयणं पिपिञ्जरियं ॥ बलिकम्म- गन्ध-धूवाइएहि पूया करेइ कुसुमेहिं । लङ्काहिवो महप्पा, विसुद्धगन्धेहि भावेणं ॥ सेयम्बरपरिहाणो, नियमत्थो कुण्डलुज्जलकवोलो । तिविहेण पणमिऊणं, उवविट्टो कोट्टिमतलम्मि ॥ सन्तिनिणस्स अहिमुहो, धीरो होऊण अद्धपलियङ्कं । गहियक्खमालहत्थो, आढत्तो सुमरिडं विज्जं पुबं समप्पियभरा, एत्तो मन्दोयरी भणइ मन्ति । नमदण्डनामधेयं देहि तुमं घोसणं नयरे ॥ अबो ! नहा समग्गो, लोगो तव - नियम - सीलसंजुत्तो । निणवरपूयानिरओ, दयावरो होउ जीवाणं ॥ जो पुण कोहवसगओ, करेइ पावं इमेसु दियहेसु । सो होइ घाइयबो, नइ वि पिया किं पुणं इयरो ! ॥ जमदण्डे पुरजणो, भणिओ मन्दोयरीऍ वयणेणं । मा कुणउ कोइ पावं, एत्थ नरो दुबिणीओ वि ॥ सोऊण मन्तिवयणं वि लोगो, जाओ निणिन्दवरसासणभत्तिजुत्तो । सिद्धालयाण विमलाण ससिप्पहाणं, पूयानिओयकरणेसु सया पसत्तो ॥ ३६ ॥ ॥ ॥ इय पउमचरिए फग्गुणट्ठा हियामह्लोगनियम करणं नाम छासट्ट पव्वं समत्तं ॥ Jain Education International २५ ॥ २६ ॥ २७ ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ For Private & Personal Use Only ३१ ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ गई थी । (२२) जिनवरके पूजाभिषेक के लिये दही, दूध और घी से भरे हुए तथा मुखभागमें उत्तम पुष्पोंसे ढँके हुए पूर्णकलश द्वारपर रखे गये । (२३) झल्लरि, हुडुक्क ओर तिलिम जैसे वाद्योंसे युक्त बड़े नगारे और भेरियाँ तथा बादलके समान घोष करनेवाले वाद्य जिनमन्दिरोंमें बजने लगे । (२४) हजारों भवनों के समूह के बीच स्थित नगरीका भूषण जैसा रावणका महल कैलासपर्वत के ऊँचे शिखरकी भाँति शोभित हो रहा था । (२५) उसके पास सोनेकी बनी हुई उज्ज्वल और विचित्र दीवारवाला तथा हज़ारों तम्भोंसे युक्त शान्तिनाथ भगवान्‌का मनोहर मन्दिर था । (२६) नानाविध रत्नों एवं पुष्पोंसे पूजित वह सब तरफसे सजाया हुआ था। उसमें विद्याकी साधना के लिए धीर रावणने प्रवेश किया । (२७) उस समय बड़े-बड़े नगरों और वाद्योंकी नाना प्रकारकी ध्वनिसे मानों तीनों लोक संक्षुब्ध हो गये और स्नानाभिषेकके चन्दनकी रजसे आकाश भी मानों पीला-पीला हो गया । (२८) विशुद्ध इन्दीवर कमलके समान नील वर्णवाले महात्मा रावगने नैवेद्य, सुगन्धित धूप आदिसे तथा पुष्पोंसे पूजा की। (२) सफेद वस्त्र पहना हुआ, नियममें स्थित तथा कुण्डलों के कारण देदीप्यमान कपोलवाला वह मनसा, वाचा कर्मणा तीनों प्रकारसे वन्दन करके रत्नमय भूमिपर बैठा । (३०) शान्ति जिनके सम्मुख वह धीर अर्धपर्यासन में बैठकर तथा हाथमें अक्षमाला धारण करके विद्याका स्मरण करने लगा । (३१) [ ६६. २३ पहले जिसे सारा भार सौंपा गया है ऐसी मन्दोदरीने मंत्री से कहा कि तुम नगरमें यमदण्ड नामकी घोषणा करवाओ। कि सब लोग तप, नियम एवं शीलसे युक्त हों, जिनवर की पूजामें निरत रहें तथा जीवों पर दयाभाव रखें। (३२-३३) जो कोई क्रोधके वशीभूत होकर इन दिनों पाप करेगा वह मारा जायगा, फिर वह चाहे पिता हो या दूसरा कोई । (३४) मन्दोदरो के कहने से यमदण्ड नामकी घोषणा द्वारा नगरजनों को जताया गया कि इन दिनों कोई दुर्विनीत नर भी पाप न करे । (३५) मंत्रीको घोषणा सुन सभी लोग जिनेन्द्र के उत्तम शासनमें भक्तियुक्त हुए और मुक्तिस्थानमें गये हुए, विमल एवं चन्द्रमाके समान कान्तिवाले उन जिनेन्द्रों की अवश्य कर्तव्य रूप पूजा करनेमें सदा निरत हुए। (३६) ॥ पद्मचरितमें फाल्गुन मासका अष्टाह्निका महोत्सव तथा लोकनियमकरण नामक छासठवाँ पर्व समाप्त हुआ | www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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