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६७. सम्मदिदिदेवकित्तणपव्वं
तं चेव उ वित्तन्तं, चारियपुरिसाण मूलओ सुणिउं । जंपन्ति वाणरभडा, एककं रिउजयामरिसा ॥ १ ॥ नह किल सन्तिजिणघरं. पविसेउं रावणो महाविज्जा । नामेण य बहुरूवा, देवाण वि जम्भणी जा सा ॥२॥ नाव न उवेइ सिद्धि, सा विज्जा ताव तत्थ गन्तूणं । खोभेह रक्खसवई, नियमत्थं मा चिरावेह ॥ ३ ॥ नइ सा उवेइ सिद्धि, राहव ! बहुरूविणी महाविजा । देवा वि जिणइ सबे, किं पुण अम्हेहि खुद्देहिं? ॥ ४ ॥ भणिओ बिभीसणेणं, रामो इह पत्थवम्मि दहवयणो । सन्तीहरं पविट्ठो, नियमत्थो घेप्पऊ सहसा ॥ ५॥ पउमेण वि पडिभणिओ, भीयं न हणामि रणमुहे अयं । किं पुण नियमारूढं, पुरिसं जिणचेइयहरत्थं ? ॥ ६ ॥ अह ते वाणरसुहडो, मन्तं काऊण अट्ट दियहाई । पेसन्ति कुमारवरे, लङ्कानयरिं बलसमग्गे ॥ ७ ॥ चलिया कुमारसीहा, लङ्काहिवइस्स खोभणट्टाए । सन्नद्धबद्धचिन्धा, रह-गय-तुरएसु आरूढा ॥८॥ मयरद्धओ कुमारो, आडोवो तह य गरुयचन्दाभो। रइवद्धणो य सूरो, महारहो दढरहो चेव ॥ ९॥ वायायणो य जोई, महाबलो नन्दणो य नीलो य । पीइंकरो नलो वि य, सबपिओ सबट्टो य ॥ १० ॥ सायरघोसो खन्दो, चन्दमरीई सुपुण्णचन्दो य । एत्तो समाहिबहुलो, सीहकडी दासणी चेव ॥ ११ ॥ नम्बूणओ य एत्तो, संकडवियडो तहेव जयसेणो । एए अन्ने य बहू, लङ्कानयरिं गया सुहडा ॥ १२ ॥ पेच्छन्ति नवरि लङ्का-पुरी' लोयं भउज्झियं सयलं । अह जंपिउँ पयत्ता, अहो! हु लङ्काहिवो धीरो ॥ १३ ॥ बद्धो य भाणुकण्णो, इन्दइ घणवाहणो य संगामे । बहिया य रक्खसभडा, बहवो वि य अक्खमाईया ॥ १४ ॥ तह वि य रक्खसवइणो, खणं पि न उवेइ काइ पडिसङ्का । काऊण समुल्लावं, एवं ते विम्हयं पत्ता ॥ १५ ॥
६७. सम्यग्दृष्टि देवंका कीर्तन गुप्तचरोंसे यह समग्र वृत्तान्त सुनकर शत्रुके जयको न सहनेवाले वानर सुभट एक-दूसरेसे कहने लगे कि भगवान् शान्तिनाथके मन्दिर में प्रवेशकर देवोंको भी डरानेवाली जो बहुरूपा नामकी महाविद्या है उसे जबतक रावण सिद्ध नहीं करता तबतक वहाँ जाकर नियमस्थ उस राक्षसपतिको क्षुब्ध करो। देर मत लगाओ। (१-३) हे राघव ! यदि वह बहुरूपिणी महाविद्या सिद्ध करेगा तो सारे देव भी उसे जीत नहीं सकेंगे, फिर हम क्षुद्रोंकी तो बात ही क्या ? (४) विभीपणने रामसे कहा कि शान्तिनाथके मन्दिरमें प्रविष्ट और नियमस्थ रावगको आप प्रारम्भमें ही सहसा पकड़ें। (५) इसपर रामने भी कहा कि युद्ध में भयभीत पुरुषको भी मैं नहीं मारता, तो फिर जिनके चैत्यगृहमें स्थित नियमारूढ़ पुरुषकी तो बात ही क्या । (६) इसके पश्चात् उन वानर-सुभटोंने आठ दिन तक मंत्रगा करके सेनाके साथ कुमारवरोंको लंकानगरीकी ओर भेजा। (७)
कवच पहने हुए तथा चिह्न बाँधे हुए वे कुमार रथ, हाथी एवं घोड़ों पर सवार हो रावणको क्षुब्ध करनेके लिए चल पड़े। (5) कुमार मकरध्वज, आटोप, गरुड़, चन्द्राभ, रतिक्धन, शूर, महारथ, दृढ़रथ, वातायन, ज्योति, महाबल, नन्दन, नील, प्रीतिकर, नल, सर्वप्रिय, सर्वदुष्ट, सागरघोप, स्कन्द, चन्द्रमरीचि, सुपूर्णचन्द्र, समाधिबहुल, सिंहकटि, दासनी, जाम्बूनद, संकट, विकट तथा जयसेन-ये तथा दूसरे भी बहुतसे सुभट लंकानगरीकी ओर गये । (६-१२) उन्होंने लंकापुरीमें सब लोगोंको भयरहित देखा। तब वे आश्चर्यसे कहने लगे कि लंकानरेश कितना धीर है। (१३) यद्यपि युद्ध में भानुकर्ण, इन्द्रजित तथा घनवाहन पकड़े गये हैं और अक्ष श्रादि बहुत-से राक्षस सुभट मारे गये हैं, तथापि राक्षसपति क्षणभरके लिए भी भय धारण नहीं करता। इस प्रकार बातचीत करके वे विस्मित हुए। (१४-१५) तब विभीषणके पुत्र
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