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६६. २२]
६६. फग्गुणवाहियामह लोगनियमकरणपव्वं मुणिसुबयस्स तित्थे, जिणभवणालंकियं इमं भरह । गामउड-सेटि-गहवइ-भवियजणाणन्दियं मुइयं ॥ ८ ॥ सो नत्थि एत्थ गामो, नेव पुरं संगम गिरिवरो वा । तिय चच्चरं चउक्कं, जत्थ न भवणं जिणिन्दाणं ॥ ९॥ ससिकुन्दसन्निभाई, नाणासंगीयतूरसदाई । नाणाधयचिन्धाई, नाणाकुसुमच्चियतलाई ॥१०॥ साहुनणसंकुलाई, तेसंझं भवियवन्दियरवाई। कञ्चण-रयणमईणं, जिणपडिमाणं सुपुण्णाई ॥ ११ ॥ धयवडय-छत्त-चामर-लम्बूसा-ऽऽदरिसविरइयघराई । मणुएहि जिणिन्दाणं, विभूसियाई समत्थाई ॥ १२ ॥
फाल्गुनमासे अष्टाहिकामहोत्सवःलङ्कापुरी वि एवं, जिणवरभवणेसु मणभिरामेसु । उवसोहिएसु छज्जइ, महिन्दनयरिब पच्चक्खा ॥ १३ ॥ एवं फग्गुणमासे, बट्टन्ते धवलअट्ठमीमाई । नाव च्चिय पञ्चयसी, अट्टाहिमहूसवो लग्गो ॥ १४ ॥ एवं उभयबलेसु वि, नियमग्गहणुज्जओ जणो जाओ । दियहाणि अट्ठ सेणिय !, अन्नो वि हु संजमं कुणइ ॥१५॥ देवा वि देवलोए, चेइयपूयासमुज्जयमईया । सयलपरिवारसहिया, हवन्ति एएसु दियहेसु ॥ १६ ॥ नन्दीसरवरदीवं, देवा गन्तूण अट्ट दियहाई । जिणचेइयाण पूर्य, कुणन्ति दिवेहि कुसुमेहिं ॥ १७ ॥ देवा कुणन्ति ण्हवणं, कञ्चणकलसेलु खीरवारीणं । पत्तपुडएसु वि इहं, जिणाभिसेओ विहेयवो ॥ १८ ॥ पूयं कुणन्ति देवा, कञ्चणकुसुमेसु जिणवरिन्दाणं । इह पुण चिल्लदलेसुं, नरेण पूया विरइयत्वा ॥ १९ ॥ लकापुरी' लोगो, अहियं उच्छाहजणियदढभावो । भूसेइ चेइयहरे, धय-छत्त-पडायमाईसु ॥ २० ॥ गोसीसचन्दणेणं, सिग्धं सम्मजिओवलित्ताई । कणयाइरएण पुणो, रङ्गावलिचित्तियतलाई ॥ २१ ॥ वजिन्दनील-मरगय-मालालम्बन्तदारसोहाई । सुरहिसुगन्धेसु पुणो, कुसुमेसु कयाइं पूयाई ॥ २२ ॥
मन मुनिसुनता) इस
चन्द्रमा अचित प्रदेशवापूर्ण, ध्वजा, लागाने विभूषित हो रही थी. लोग नियम
में
भगवान् मुनिसुव्रतके तीर्थ में यह भरतक्षेत्र जिनभवनोंसे अलंकृत और ग्रामसमूह, सेठ, गृहस्थ एवं भव्यजनोंको आनन्द देनेवाला तथा सुखमय था । () इसमें कोई ऐसा गाँव, नगर, नदीका संगम-स्थान, पर्वत, तिराहा, चौराहा या चौक नहीं था जिसमें जिनेन्द्रोंका मन्दिर न हो । () चन्द्रमा और कुन्द पुष्पके समान सफेद, नानाविध संगीत एवं वाद्योंसे शब्दायमान, अनेक प्रकारके ध्वजा-चिह्नोंसे युक्त, विविध पुष्पोंसे अर्चित प्रदेशवाले, साधुजनोंसे युक्त, तीनों सन्ध्याओंके समय भव्यजनों की वन्दनध्वनिसे व्याप्त, स्वर्ण, रत्न एवं मणिमय जिनप्रतिमाओंसे पूर्ण, ध्वजा, पताका, छत्र, चामर, लम्बूष (गेंदके आकारका एक आभरण) एवं दर्पण से सजाये हुए गृह्वाले-ऐसे जिनवरोंके सारे मन्दिर लोगोंने विभूषित किये । (१०-२) इसी प्रकार लंकापुरी भी मनोहर और अलंकृत जिनभवनोंसे साक्षात् इन्द्रनगरी अलकापुरीकी भाँति शोभित हो रही थी। (१३) इस तरह जब फागुन मास था तब शुक्ल अष्टमीसे पूर्णिमातक अट्ठाई-महोत्सव मनाया गया। (१४) दोनों सेनाओंमें लोग नियम ग्रहण में उद्यत हुए। हे श्रेणिक! आठ दिन तो दूसरे लोग भी संयमका पालन करते हैं। (१५) इन दिनों देव भी देवलोकमें सकल परिवारके साथ चैत्यपूजामें उद्यमशील रहते हैं। (२६) नन्दीश्वर द्वीपमें जाकर देव आठ दिन तक दिव्य पुष्पोंसे जिनचैत्योंकी पूजा करते हैं। (१७) देव सोनेके कलशोंमें क्षीरसागरके जलसे जिनेश्वर भगवान्को स्नान कराते हैं, अतः यहाँ पर भी पत्रपुटोंसे जिनाभिषेक करना चाहिए। (१८) स्वर्णपुष्पोंसे देव जिनवरोंकी पूजा करते हैं अतः यहाँ पर भी पुष्पोंसे लोगोंको पूजा करनी चाहिए। (१६)
लंकानगरीमें उत्साहजनित दृढ़ भाववाले लोगोंने ध्वजा, छत्र एवं पताका आदिसे चैत्यगृहोंको सजाया। (२०) बुहारकर गोशीर्षचन्दनसे लीपे गये आँगन शीघ्र ही सोना आदिकी रजसे रचित रंगवल्लीसे चित्रित किये गये। (२१) हीरे, इन्द्रनील एवं मरकतकी लटकती हुई मालाओंसे दरवाजे शोभित हो रहे थे और सुगन्धित गन्धवाले पुष्पोंसे उनमें पूजा की
१. बज्झे रामवलअट्ठी-प्र० ।
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