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________________ ३६६ पउमचरियं पायालत्रीइपउरं, मयगलगाहा उलं रहावत्तं । राहव ! भुयासु तरिउं, किं इच्छसि रावणसमुद्दं ? ॥ ४६ ॥ चण्डाणिलेण वि नहा, न चलिज्जइ पउम ! दिणयरो गयणे। तह य तुमे दहवयणो, न य निप्पइ समरमज्झम्मि ॥ ४७ ॥ सोऊण मज्झ वयणं, रुट्टो भामण्डलो सहामज्झे । खम्मां समुग्गिरन्तो, निवारिओ लक्खणेणं ति ॥ ४८ ॥ वाणरभडेसु वि अहं, अहियं निब्भच्छिओ भउबग्गो । पक्खी व समुप्पइउं, तुज्झ सयासं समल्लीणो ॥ पवयभडसमक्खं बिसीयाणुबन्धं, रहुवइभणियं जं तं मए तुज्झ सिद्धं । ४९ ॥ १ कुण निययकज्जं सारूवं तुमं तं विमलजसविसालं भुञ्ज रज्जं समत्थं ॥ ५० ॥ ॥ इय पउमचरिए राव गया भगमणं नाम पश्र्वसट्टं पव्वं समत्तं ॥ Jain Education International [ ६५.४६ ६६. फग्गुणट्ठाहियामह - लोग नियमकरणप २ ॥ सोऊण दूयवयणं, दसाणणो निययमन्तिसमसहिओ । मन्तं कुणइ जयत्थे, गाढं सुयसोगसंतत्तो ॥ १ ॥ विहुणासि, संगामे बहुनरिन्दसंघट्टे । तह वि य मज्झ सुयाणं, दीसइ नियमेण य विणासो ॥ आणेमि अवेइओ सहसा ॥ बहुरूवं नाम नामेणं ॥ सद्दाविय किंकरा भणइ ॥ ३ ॥ अहवा निसासु गन्तुं सुत्ताणं वेरियाण उक्खन्दं । दाऊण कुमारवरे, एव परिचिन्तयन्तस्स तस्स सहसा समागया बुद्धी । साहेमि महाविज्जं, नय सा सुरेहि जिप्es, होहिज्जइ अइबला महाविज्जा । परिचिन्तिऊण एवं सन्तीहरस्स सोहं, सिग्धं चिय कुणह तोरणादीसु । विरएह महापूयं, जिणवरभवणेसु सबेसु ॥ मन्दोयरीऍ एत्तो, सो चेव भरो समप्पिओ सबो । कोइलमुहलुग्गीओ, तइया पुण फग्गुणो मासो ॥ ७ ॥ ४ ॥ ५ ॥ ६ ॥ तरंगों से व्याप्त. मद करनेवाले हाथीरूपी ग्राहोंसे युक्त ओर रथरूपी भँवरवाले रावणरूपी समुद्रको तुम क्या भुजाओंसे तैरना चाहते हो ? (४६) हे राम ! जिस तरह प्रचण्ड आँधीसे आकाशमें सूर्य चलित नहीं होता उसी तरह युद्धमें रावण तुमसे जीता नहीं जायगा । (४७) मेरा वचन सुनकर सभा के बीच तलवार खींचनेवाले रुष्ट भामण्डलको लक्ष्मणने रोका । (४८) वानर सुभटोंसे भी अत्यन्त तिरस्कृत मैं भयसे उद्विग्न हो पक्षीकी भाँति उड़कर आपके पास आया हूँ । (४६) वानर - सुभटोंके समक्ष सीता के उत्कट प्रेमसे युक्त रघुपतिने जो कुछ कहा था वह मैंने आपसे निवेदन किया। अब आप अपने अनुरूप कार्य करें तथा विमल यश एवं समस्त विशाल राज्यका उपभोग करें। (५०) ॥ पद्मचरितमें रावणके दूतका अभिगमन नामक पैंसठवाँ पर्व समाप्त हुआ || ६६. अष्टाह्निका महोत्सव तथा लोगोंका नियमन दूतका वचन सुनकर पुत्रके शे कसे अत्यन्त सन्तप्त रावणने विजयके लिए अपने मन्त्रियोंके साथ मंत्रणा की । (१) बहुत-से राजाओंके समुदायसे युक्त संग्राममें यदि मैं शत्रुओं को जीत लूँ तब भी मेरे पुत्रों का विनाश तो निश्चय ही दीखता है। (२) अथवा रात्रिके समय सहसा अज्ञात रूपसे पुत्रों के वैरियों को घेरकर और उन्हें छलसे मारकर कुमारों को ले आऊँ । (३) इस प्रकार सोचते हुए उसे एकदम विचार आया कि बहुरूपा नामकी विद्याकी मैं साधना करूँ । (४) वह महाविद्या अत्यन्त बलवती होती है । उसे तो देव भी जीत नहीं सकते। ऐसा सोचकर उसने भृत्योंसे कहा कि भगवान् शान्तिनाथ के मन्दिरको तोरण आदिसे शीघ्र ही सजाओ और सब जिनमन्दिरोंमें महापूजा करो । ( ५-६ ) इसका सारा भार मन्दोदरीको सौंपा गया । उस समय कोयलके मुखसे निकलनेवाले संगीतसे युक्त फागुन महीना था । (७) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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