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________________ ३६५ ६५. ४५ ] ६५. रावणदूयाभिगमणपव्वं न य बम्भणं न समणं, न य दूयं नेय बालयं वुड्डूं। न य घायन्ति मणुस्सा. हवन्ति जे उत्तमा लोए ॥ ३० ॥ लच्छीहरेण रुद्धे, एत्तो भामण्डले भणइ दूओ । राहव ! वेयारिज्जसि, इमेहि भिच्चेहि मूढेहिं ॥ ३१ ।। नाऊण य अप्पहियं, अहवा हियएण मुणिय दोस-गुणं । परिचयसु नणयतणयं, भुञ्जसु पुहविं चिरं कालं ॥ ३२ ॥ पुष्फविमाणारूढो, सहिओ कन्नाण तिहि सहस्सेहिं । राहव ! लीलायन्तो, इन्दो इव भमसु तेलोकं ॥ ३३ ॥ एवं समुल्लवन्तो, भडेहि निब्भच्छिओ गओ दूओ । साहइ रक्खसवइणो, जं भणियं रामदेवेणं ॥ ३४ ॥ बहुगाम-नयर-पट्टणसमाउला वसुमई महं सामी । देइ तुह गय-तुरङ्गे, पुप्फविमाणं च मणगमणं ॥ ३५ ॥ वरकन्नाण सहस्सा, तिणि उ सीहासणं दिणयरामं । ससिनिम्मलं च छत्तं, जइ से अणुमन्नसे सीया.॥ ३६ ॥ वयणाई एवमाई, पुणरुत्तं देव ! सो मए भणिओ । पउमो एगग्गमणो, सीयागाहं न छड्डइ ॥ ३७ ।। भणइ पउमो महाजस!, जह तुज्झ इमाइं जंपमाणस्स । जीहा कह न य पडिया, पसिढिलवासिप्फलं चेव ? ॥३८॥ सुरवरभोगेसु वि मे, सीयाएँ विणा न निव्वुई मज्झं । भुञ्जसु तुम दसाणण !, सयलसमत्थं इमं वसुहं ॥ ३९ ।। मण-नयणहारिणीओ, भयसु तुम चेव सबजुवईओ। पत्त-फलाहारो है, सीयाएँ समं भमीहामि ॥ ४० ॥ वाणरवई वि एत्तो, हसिऊणं भणइ जह तुम सामी। किं सो गहेण गहिओ, वाऊण व साऽऽसितो होज्जा ॥४१॥ जेणेरिसाई पलवइ, विवरीयत्थाणि चेव वयणाई। किं तत्थ नत्थि वेज्जा, जे तुह सामि तिगिच्छन्ति ? ॥ ४२॥ संगाममण्डले वि हु, आवासं सरवरेसु काऊणं । हरिही लक्खणवेजो, कामगहवेयणं तस्स ॥ ४३ ॥ सुणिऊग वयणमेयं, तो मे रुद्वेण वाणराहिवई । भणिओ अहिक्खिवन्तो, तुज्झ बि मरणं समासन्नं ॥ ४४ ॥ भणिओ मे दासरही, कुवुरिसवेयारिओ तुमं संधी। न कुणसि कुणसि विरोह, कज्जाकजं अयाणन्तो ॥ ४५ ॥ प्राप्त नहीं होता। (२६) लोकमें जो उत्तम मनुष्य होते हैं वे ब्राह्मण, श्रमग, दूत, बालक और वृद्धका घात नहीं करते । (३०) इस तरह लक्ष्मणने जब भामण्डलको रोका तब दूतने कहा कि हे राघव ! इन-मूर्ख भृत्योंसे तुम ठगे गये हो। (३१) अपना हित जान करके अथवा मनसे गुण-दोषका विचार करके तुम सीताका त्याग करो और चिरकालतक पृथ्वीका उपभोग करो। (३२) हे राघव ! तीन हजार कन्याओंके साथ पुष्पक विमानमें आरूढ़ हो इन्द्रकी भाँति लीला करते हुए तुम त्रिभुवनमें भ्रमण करो। (३३) इस तरह बकबक करनेवाला दूत सुभटों द्वारा अपमानित होनेपर चला गया और रामने जो कुछ कहा था वह राक्षसपति रावणसे कहा । (३४) 'यदि तुम सीताको दे दो तो मेरे स्वामी तुम्हें अनेक ग्राम, नगर एवं पत्तनोंसे व्याप्त पृथ्वी, हाथी एवं घोडे, मनोनुकूल गमन करनेवाला पुष्पक विमान, तीन हज़ार उत्तम कन्याएँ, सूर्यके समान कान्तिवाला सिंहासन तथा चन्द्रमाके समान विमल छत्र प्रदान करेंगे'। (३५-३६) हे देव ! मैंने उन्हें ऐसे वचन पुनः पुनः कहे, फिर भी एकाग्र मनवाले रामने सीता का आग्रह नहीं छोड़ा । (३७) हे महायश ! इसपर रामने कहा कि इस तरह कहते हुए तुम्हारी जीभ शिथिल और बासी फलकी भाँति क्यों गिर न गई ? (३८) देवोंके उत्तम भोगोंमें भी सीताके बिना मुझे चैन नहीं पड़ सकता। हे रावण ! इस सारी पृथ्वीका तुम उपभोग करो। (३९) मन और आँखोंको सुन्दर लगनेवाली सब युवतियाँ तुम्हारी सेवा करें। पत्र और फलका आहार करनेवाला मैं सीताके साथ भ्रमण करता रहूँगा। (४०) उस समय वानरपति सुग्रीव भी हँसकर कहने लगा कि तुम्हारा वह स्वामी क्या भूतसे पकड़ा गया है अथवा वायुसे ग्रस्त हुआ है, जिससे वह इस प्रकारके विपरीत अर्थवाले वचन कहता है। क्या वहाँ कोई वैद्य नहीं है जो तुम्हारे स्वामीकी चिकित्सा करे ? (४१-४२) युद्ध-समूहरूपी सरोवरोंमें आवास कराकर लक्ष्मणरूपी वैद्य उसकी कामरूपी ग्रहसे उत्पन्न वेदनाको दूर करेगा । (४३) यह कथन सुनकर रुष्ट मैंने वानरपतिका अपमान करके उसे कहा कि तेरा भी मरण समीप आया है। (४४) रामको मैंने कहा कि, कुपुरुषके द्वारा प्रतारित होकर कार्य-अकार्य नहीं जाननेवाले तुम सन्धि तो नहीं करते, उल्टा विरोध बढ़ा रहे हो। (४५) और हे राघव ! पैदल योद्धारूपी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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