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पउमचरियं
[६५.१४.
बद्धो जेण रणमुहे, इन्दो परिनिज्जिया भडा बहवे । सो रावणो महप्पा, राहव ! किं ते असुयपुवो। ॥ १४ ॥ पायाले गयणयले, जले थले जस्स वच्चमाणस्स । न खलिज्जइ गइपसरो, राहव ! देवासुरेहिं पि ॥ १५ ॥ लवणोदहिपरियन्तं, वसुहं विजाहरेसु य समाणं । लकापुरीऍ भागे, दोणि तुम देमि तुट्ठो है ॥ १६ ॥ पेसेहि मज्झ पुत्ते, मुञ्चसु एकोयरं निययबन्धु । अणुमण्णसु जणयसुया. जइ इच्छसि अत्तणो खेमं ॥ १७ ।। तो भणइ पउमनाहो, न य मे रज्जेण कारणं किंचि । जं अन्नपणइणिसमं, भोगं नेच्छामि महयं पि ॥ १८ ।। पेसेमि तुज्झ पुते, सहोयरं चेव रावण ! निरुत्तं । होहामि सुपरितुट्ठो, जइ मे सीयं समप्पेहि ॥ १९ ॥ एयाएँ समं रणे, भमिहामि सुमित्तिपरिमिओ अहयं । भुञ्ज तुमं दसाणण !, सयलसमत्थं इमं वसुहं ॥२०॥ एयं चिय दूय ! तुम, तं भगसु तिकूडसामियं गन्तुं । एयं तुज्झ हिययरं, न अन्नहा चेत्र कायबं ॥ २१ ॥ सुणिऊग वयगमेयं, दूओ तो भगइ राहवं एत्तो । महिलापसत्तचित्तो, अप्पहियं नेव लक्खेसि ॥ २२ ॥ गरुडाहिवेण जइ वि हु, पवेसियं जाणजुवलयं तुज्झ । जइ वा छिदेण रणे, मह पुत्ता सहोयरा बद्धा ॥ २३ ॥ तह वि य किं नाम तुमं, गवं अइदारुणं समुवहसि । जेणं करेसि जुझं?, न य सोया नेय जीयं ते ॥ २४ ॥ सुणिऊग वयगमेय, अहिययरं जणयनन्दणो रुट्ठो । भडभिउडिकयाडोवो, जंपइ महएण सदेणं ॥ २५ ॥ रे पावदूयकोल्हुय !, दुबयणावास ! निभओ होउं । जेणेरिसाणि जंपसि, लोगविरुद्धाइं वयणाई ॥ २६ ॥ सीयाए कहा का विहु, किं वा अहिखिवसि सामियं अम्हं ? । को रावगो त्ति नाम, दुटोय पसू अचारित्तो? ॥ २७ ॥ भणिऊण वयगमेयं, जाव य खग्गं लएइ जगयसुओ। लच्छीहरेण ताब य, रुद्धो नयचक्खुणा सहसा ॥ २८ ॥
पडिसद्दएण को वि हु, भामण्डल ! हवइ दारुणो कोबो । एएग मारिएणं, दूएण जसो न निबडइ ।। २९ ॥ रावणके बारेमें क्या आपने पहले नहीं सुना । (१४) हे राघव ! पातालमें, आकाशमें, जलमें, स्थलमें जाते हुए जिसकी गतिके प्रसारको देव और असुर भी रोक नहीं सकते, ऐसे रावगके बारेमें क्या तुमने पहले नहीं सुना ? (१५) तुष्ट मैं तुम्हें विद्याधरोंके साथ लवणोदधि तककी पृथ्वी तथा लंकापुरीके दो भाग देता हूँ। (१६) यदि तुम अपनी कुशल चाहते हो तो मेरे पुत्रोंको भेज दो, मेरे अपने सहोदर भाईको छोड़ दो और जनकसुताको अनुमति दो। (१७)
इसपर रामने कहा कि मुझे राज्यसे कोई प्रयोजन नहीं है। अन्यकी पत्नीकी भाँति महान् भोगकी भी मैं अभिलाषा नहीं रखता । (१८) हे रावण! तुम्हारे पुत्रों और भाईको मैं भेजता हूँ। यदि सीता मुझे सौंप दी जाय तो मैं सन्तुष्ट हो जाऊँगा। (१६) लक्ष्मगसे युक्त मैं उसके साथ अरण्यमें घूमता फिरूँगा। हे दशानन ! इस सारी पृथ्वीका तुम उपभोग करो। (२०) हे दूत ! त्रिकूटके स्वामी रावणके पास जाकर तुम उससे यह कहो कि यही तुम्हारे लिए हितकर है। इससे उल्टा तुम्हें नहीं करना चाहिए । (२१)
ऐसा वचन सुनकर दूतने रामसे कहा कि स्त्रीमें आसक्त मनवाले तुम अपना हित नहीं देखते । (२२) यद्यपि गरुडाधिप ने तुम्हें दो वाहन दिये हैं और कपटसे मेरे भाई और पुत्रोंको युद्ध में तुमने पकड़ लिया है तथापि तुम्हारा क्या हिसाब है? तुम्हें जो अतिदारुण गर्व उत्पन्न हुआ है उससे तुम युद्ध करते हो, परन्तु न तो तुम्हें सीता ही मिलेगी और न तुम्हारे प्राण ही बचेंगे। (२३-२४)
दूतका यह कथन सुनकर जनकनन्दन भामण्डल बहुत ही गुस्सेमें हो गया। भृकुटिका भयंकर आटोप करके और चिल्लाकर उसने कहा कि अरे पापी और सियार जैसे दूत ! तुम निर्भय होकर ऐसे लोकविरुद्ध वचन कहते हो, अतएव तुम दुर्वचनोंके आवासरूप हो । (२५-२६) सीताकी तो क्या बात, तुम हमारे स्वामीका तिरस्कार क्यों करते हो? दुष्ट, पशु तुल्य
और दुश्चरित रावण कौन होता है ? (२७) ऐसा कहकर भामण्डल जैसे ही तलवार उठाता है वैसे ही नीति-विचक्षण लक्ष्मणने उसे एकदम रोका । (२८) हे भामण्डल ! किसी तरहका प्रत्युत्तर देनेसे दारुण क्रोध ही होता है। अतः दूतको मारनेसे यश
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