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________________ ६५. रावणयाभिगमणपव्वं अह लक्खणं विसलं, चारियपुरिसेसु साहियं एत्तो । सुणिऊण रक्खसवई, मन्तीहि समं कुणइ मन्तं ॥ १ ॥ विविहकलागमकुसलो, मयङ्कनामो तओ भणइ मन्ती । रूससि जइ वा तूससि, तह वि य निसुणेहि मह वयगं ॥२॥ रामेण लक्खणेण य, विजाओ सीह-गरुडनामाओ । लद्धाउ अयत्तेणं, तुज्झ समक्खं इह सामि ! ।। ३ ॥ बद्धो य भाणुयण्णो, समयं पुत्तेहि तुज्झ संगामे । सत्तोएँ निरत्थतं, जायं च अमोहविजाए ॥ ४ ॥ जह जीवइ निक्खुतं, सोमित्ती तह वि तुज्झ पुत्ताणं । दीसइ सामि ! विणासो, समयं चिय कुम्भयण्णेणं ॥ ५ ॥ सयमेव एवमेयं, नाऊणऽम्हेहि जाइओ सन्तो । अणुचरसु धम्मबुद्धिं, सामिय ! सोयं समप्पेहि ॥ ६ ॥ पुवपुरिसाणुचिण्णा, मज्जाया पालिया सह जणेणं । बन्धवमित्ताण हियं, होइ फुड सन्धिकरणेणं ॥ ७ ॥ पायवडिएहि एवं, जे भणिओ मन्तिणेहि दहवयणो । गमियं करेइ दूयं, सामन्तं नाम नामेणं ॥ ८ ॥ मन्तीहि समुदएणं, संदिटुं सुन्दरं तु दूयस्स । नवरं महोसह पिव, सुदूसियं रावण ऽत्थेणं ॥ ९ ॥ उत्तमकुलसंभूओ, दूओ नय-विणय-सत्तिसंपन्नो । रामस्स सन्नियासं, सामन्तो पत्थिओ सिग्धं ॥ १० ॥ पायवडिओ निविट्ठो. सामन्तो भणइ राहवं एत्तो । लङ्काहिवस्स वयणं, कहिज्जमाणं निसामेहि ॥११॥ जुज्झेण किर न कजं, सपञ्चवाएण जणविणासेणं । बहवो गया खयन्तं, पुरिसा जुज्झाहिमाणेणं ॥ १२ ॥ नंपइ लङ्काहिवई, कुणसु पयत्तेण सह मए संधी । न य घेप्पइ पञ्चमुहो, विसमगुहामज्झयारत्थो ॥ १३ ॥ व लक्ष्मणने बिना किविद्या शक्ति भी पड़ता है। ६५. रावणके दूतका आगमन गुप्तचरोंने शल्यरहित लक्ष्मणके बारेमें कहा । यह सुनकर राक्षसपति रावण मंत्रियोंके साथ मंत्रणा करने लगा। (२) तब विविध कलाओं तथा शास्त्रोंमें कुशल मृगाङ्क नामके मंत्रीने कहा कि आप रुष्ट हों अथवा तुष्ट हों, फिर भी मेरा वचन सुनें। (२) हे स्वामी ! यहाँ आपके समक्ष हो राम एवं लक्ष्मगने बिना किसी प्रयत्न के ही सिंह एवं गरुड़ नामकी विद्याएँ प्राप्त की हैं। (३) संग्राममें आपके पुत्रोंके साथ भानुकर्णको बाँधा और अमोघविद्या शक्ति भी निकम्मी हो गई। (४) हे स्वामी! यदि लक्ष्मण अवश्य जीवित हुआ है तो कुम्भकर्ण के साथ आपके पुत्रों का विनाश दिखाई पड़ता है। (३) वस्तुस्थिति इसी प्रकार है ऐसा स्वयमेव जानकर हमारो यही याचना है कि, स्वामी ! आप धर्मबुद्धिका अनुसरण करें और सीताको सौंप दें। (६) पूर्वपुरुषों द्वारा अनुष्ठित मर्यादाका लोगोंके साथ पालन करनेसे तथा सन्धि कर लेनेसे भाई तथा मित्रोंका अवश्य ही हित होगा। (७) पैरों में पड़कर मंत्रियोंने जब रावणसे ऐसा कहा तब उसने सामन्त नामके दूतको भेजा। (८) मंत्रियोंने प्रसन्नताके साथ दूतका सुंदर संदेश दिया, परन्तु रावगने उसे अर्थसे, महौषधको भाँति, अत्यन्त दूषित कर दिया। (8) उत्तम कुलमें उत्पन्न तथा नय, विनय एवं शक्तिसे सम्पन्न दूत सामन्तने रामके पास जाने के लिए शीघ्र ही प्रस्थान किया । (१०) पैरोंमें गिरकर ( अर्थात् नमस्कार करके) और बैठनेपर सामन्तने रामसे कहा कि लंकाधिप रावणका जो संदेश मैं कहता हूँ उसे आप सुनें। (११) पापपूर्ण और लोकविनाशक युद्धका कोई प्रयोजन नहीं है। युद्धके अभिमानसे बहुतसे पुरुष विनाशको प्राप्त हुए हैं। (१२) लंकाधिपति कहते हैं कि तुम मेरे साथ समझ-बूझकर सन्धि कर लो। विषम गुफामें रहा हुआ सिंह पकड़ा नहीं जाता। (२३) हे राम! जिसने युद्धभूमिमें इन्द्रको बाँधा था तथा बहुतसे सुभटोंको हराया है उस महात्मा १. वन्धवपुत्ताण-मु०। 2-3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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