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________________ ३९२ पउमचरियं [६४.३२जिणवरतवस्स पेच्छसु, माहप्पं परभवे सुचिण्णस्स । जेणेरिसाई सुपुरिस !, साहिज्जन्तीह कज्जाई ॥ ३२ ॥ अहवा को इहलोगम्मि विम्हओ साहिएण कजेणं । पावइ जेण सिवसुह, जीवा कम्मक्खयं काउं ॥ ३३ ॥ मुञ्च परायत्ता है, इमाएँ परिनिज्जिया तवबलेण । वच्चामि निययठाणं, खमसु महं सामि ! दुच्चरियं ॥ ३४ ॥ काऊण समुल्लावं, · एवं तो सत्तिदेवयं हणुओ। मुञ्चइ संभमहियओ, निययट्ठाणं च संपत्ता ॥ ३५ ॥ सा दोणमेहधूया, समयं कन्नाहि विणयसंपन्ना । नमिऊण रामदेवं, उवविट्ठा लक्खणसमीवे ॥ ३६॥ परिमुसइ लक्खणं सा, मुद्धा वरकमलकोमलकरेसु । गोसीसचन्दणेण य, अणुलिम्पइ अङ्गमगाई ।। ३७ ॥ अन्नं पिव संपत्तो, जम्मं लच्छीहरो सुहपसुत्तो । आयम्बनयणजुयलो, पचलियबाहू समुस्ससिओ ॥ ३८ ॥ संगीयापण तो सो, उवगिजन्तो समुट्टिओ सहसा । रुट्ठो पलोयमाणो, जंपइ सो रावणो कत्तो? ॥ ३९ ॥ रोमञ्चकक्कसेणं, विहसियवयणेण पउमनाहेणं । अवगृहिओ कणिट्रो. भणिओ य रिख पणद्रो सो ॥ ४०॥ सिट्टं च निरवसेसं, सत्तीपहराइयं जहावत्तं । नणिओ य महाणन्दो, मन्दरपमुहेहि सुहडेहिं ।। ४१ ॥ पउमवयणेण दिन्नं, करेण तं चन्दणं विसल्लाए । दिवाउहपयाणं, इन्दइपमुहाण सुहडाणं ॥ ४२ ॥ ते चन्दणोदएणं, अहिसित्ता खेयराः गया तुरिया । जाया य विगवसल्ला, संपत्ता निव्वुई परमं ॥ ४३ ॥ सा तत्थ चन्दवयणा, दोणसुया ललियरूवलायण्णा । लच्छीहरस्स पासे, विभाइ देवि व इन्दस्स ॥ ४४ ॥ सबम्मि सुपडिवत्ते, सोमित्ती राहवस्स वयणेणं । परिणेइ दढधिईओ, तत्थ विसल्ला विभूईए ॥ ४५ ॥ एवं नरा पुवभवज्जिएणं, धम्मेण जायन्ति विमुक्तदुक्खा । पावन्ति दिवाणि नहिच्छियाणि, लोए पहाणं विमलं जसं च ॥ ४६ ॥ । इय पउमचरिर विसल्लाआगमणं नामं चउसट्ठिमं पव्वं समत्तं ।। प्रकारसे आचरित जिनवरके तपका माहात्म्य देखो, जिससे इस भवमें ऐसे कार्य सिद्ध होते हैं । (३२) अथवा इस लोकमें साधित कार्यके लिए विस्मयकी क्या बात है, क्योंकि उससे तो जीव कर्मक्षय करके मोक्षसुख भी प्राप्त करते हैं। (३३) इसके तपोबलसे मैं पराजित हुई हूँ। मैं परायत्त हूँ, इसलिए मुझे छोड़ दो। मैं अपने स्थान पर जाऊँ। हे स्वामी ! मेरा दुश्चरित क्षमा करो। (३४) इस प्रकार सम्भाषण करनेवाली उस शक्तिदेवताको हृदयमें भयभीत हनुमानने छोड़ दिया। वह अपने स्थान पर चली गई । (३५) विनयसम्पन्न वह द्रोणमेघकी पुत्री विशल्या कन्याओंके साथ रामको नमस्कार करके लक्ष्मणके पास जा बैठी। (३६) उस मुग्धाने कमलके समान कोमल उत्तम हाथोंसे लक्ष्मणको सहलाया तथा गोशीर्षचन्दनसे उसके अंग-प्रत्यंगपर लेप किया। (३७) आरामसे सोये हुए, किंचित् रक्तवर्णके नेत्रयुगलवाले, जिसके हाथ कुछ हिल रहे हैं ऐसे तथा उच्छ्वास प्राप्त लक्ष्मणने मानो दूसरा जन्म पाया। (३८) संगीतके द्वारा गुणगान किया जाता वह सहसा उठ खड़ा हुआ। रुष्ट वह चारों ओर देखता हुआ कहने लगा कि वह रावण कहाँ है ? (३६) रोमांचके कारण कर्कश तथा हास्ययुक्त मुखवाले रामने छोटे भाईका आलिंगन किया और कहा कि वह शत्रु नष्ट हो गया। (४०) शक्तिके प्रहार आदि, जो हुआ था—यह सब कहा और मन्दर आदि सुभटोंके द्वारा महा आनंद मनाया गया। (४१) रामके कहनेसे विशल्याने वह चन्दन दिव्य आयुधोंसे आहत इन्द्रजित आदि सुभटोंको लगाया । (४२) चन्दनजलसे अभिषिक्त वे खेचर शल्यरहित हो और परम आनन्द प्राप्त करके जल्दी ही चले गये । (४३) सुन्दर रूप और लावण्यसे युक्त तथा चन्द्र के समान मुँहवाली वह द्रोणसुता विशल्या लक्ष्मणके पास इन्द्रकी देवीकी भाँति शोभित हो रही थी। (४४) सब कार्य अच्छी तरहसे सम्पन्न होनेपर रामके कहनेसे अतिशय धैर्यवाले लक्ष्मणने धामधूमके साथ विशल्यासे वहाँ विवाह किया । (४५) इस तरह मनुष्य पूर्वभवमें अर्जित धर्मसे दुःखमुक्त होते हैं, यथेच्छ दिव्य पदार्थ प्राप्त करते हैं और लोकमें उत्तम एवं विमल यश उन्हें मिलता है। (४६) ॥ पद्मचरितमें विशल्याका आगमन नामक चौसठवाँ पर्व समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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