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________________ ३८९ ६३. ७२] ६३. विसल्लापुव्वभवकित्तणपव्वं तत्तो सो चरिय तवं, कालगओ सुरवरो समुप्पन्नो। चइऊण दहरहसुओ, जाओ च्चिय लक्खणो एसो ॥ ५९॥ तत्तो साऽणङ्गसरा, कमेण चइऊण देवलोगाओ । दोणघणरायधूया, विसल्लनामा समुप्पन्ना ॥ ६० ॥ जेणं चिय अन्नभवे, तव-चरणं अज्जियं सउवसगं । तेणं इमा विसल्ला, बहुरोगपणासिणी जाया ॥ ६१ ॥ बहुविहरोगामूलं, वाऊ अइदारुणो समुप्पन्नो। परिपुच्छिएण मुणिणा, तस्स वि य समुब्भवो सिट्टो ।। ६२ ।। वायुरोगोत्पत्तिकारणम्गयपुरनयरनिवासी, विञ्झो नामेण बहुधणापुण्णो । भण्डं घेत्तूण गओ, साएयपुरि महिसएहिं ॥ ६३ ॥ सो तत्थ मासमेगं, अच्छइ भण्डस्स कारणे सेट्टी । ताव य से वरमहिसो, पडिओ भाराइरेगेणं ॥ ६४ ॥ कम्मपरिनिजराए, मओ य पवणासुरो समप्पन्नो । सेयंकरपुरसामी, पवणावत्तो त्ति नामेणं ॥ ६५ ॥ अवहिविसएण देवो, नाऊणं पुबजम्मसंबन्धं । ताहे जणस्स सिग्धं, चिन्तेइ वहं परमरुट्ठो ॥ ६६ ॥ जो सो मज्झ जणवओ, पायं ठविऊण उत्तमङ्गम्मि । वच्चन्तओ य लोगो, तस्स फुडं निग्गरं काहं ॥ ६७ ॥ एव परिचिन्तिऊणं, सहसा देसे पुरे य आरुट्टो । देवो पउञ्जइ तओ, बहुरोगसमुन्भवं वाउं ॥ ६८ ॥ सो तारिसो उ पवणो, बहुरोगसमुन्भवो विसल्लाए । नीओ खणेण पलयं, तेणं चिय पहाणसलिलेणं ॥ ६९ ॥ भरहस्स जहा सिट्ट, साहूणं सबभूयसरणेणं । भरहेण वि मज्झ पहू, मए वि तुझं समक्खायं ॥ ७० ॥ अहिसेयजलं तीऍ, तुरियं आणेहि तत्थ गन्तूणं । जीवइ तेण कुमारो, न पुणो अन्नेण भेएणं ॥ ७१ ॥ अहो ! नराणं तु समत्थलोए, अवट्ठियाणं पि हु मच्चुमम्गो । समज्जियं जं विमलं त कम्म, करेइ ताणं सरणं च खिप्पं ॥ ७२ ॥ ॥ इय पउमचरिए विसल्लापुव्वभवाणु केत्तणं नाम तिसट्ठ पव्वं समत्तं ।। करके मरनेपर वह देवरूपसे उत्पन्न हुआ। वहाँसे च्युत होनेपर वह दशरथका पुत्र यह लक्ष्मण हुआ है। (५६) वह अनंगशरा भी देवलोकसे च्युत होकर द्रोणवन राजाकी विशल्या नामकी पुत्रीके रूपमें उत्पन्न हुई है। (६०) चूँकि पूर्वभवमें उपसर्गके साथ तपश्चरण किया था, इसलिए यह विशल्या बहुत रोगोंका नाश करनेवाली हुई है । (६१) एक बार नानाविध रोगोंकी कारणभूत अतिदारुग हवा उत्पन्न हुई। पूछनेपर मुनिने उसकी उत्पत्तिके बारेमें कहा । (६२) गजपुर नामक नगरमें रहनेवाला विन्ध्य नामक अतिसम्पन्न व्यापारी भैंसोंके ऊपर बेचनेके पदार्थ लेकर साकेतपुरीमें गया। (६३) बह यहाँ विक्रय पदार्थों के कारण एक महीना ठहरा। इस बीच उसका एक उत्तम भैंसा अधिक भारकी वजहसे गिर पड़ा। (६४) कर्मकी निर्जराके कारण मरनेपर वह पवनासुरके रूपमें उत्पन्न हुआ और पवनावर्तके नामसे श्रेयस्करपुर नामक नगरका स्वामी हुआ। (६५) अवधिज्ञानसे उस देवने पूर्वजन्मका वृत्तान्त जान लिया। तब अत्यन्त रुष्ट वह शीघ्र ही लोगोंके विनाशके बारेमें सोचने लगा। (६६) जनपदके वे लोग जो मेरे सिरपर पैर रखकर जाते थे उनको मैं अवश्य ही दण्ड दूंगा। (६७) ऐसा सोचकर देश और नगरपर सहसा रुष्ट उस देवने अनेक रोग पैदा करनेवाली हवा फैलाई । (६८) बहुत रोगोंके उत्पादक बैसे पवनको विशल्याने क्षणभरमें स्नानजलसे नष्ट कर डाला । (६६) हे प्रभो ! सर्वभूतशरण मुनिने भरतसे और भरतने मुझसे जैसा कहा था वैसा मैंने आपसे कहा है । (७०) वहाँ जाकर उसका अभिपेक जल फौरन ही लाओ। उससे कुमार जी उठेगा, अन्य किसी कारणसे नहीं। (७१) अहो! समस्त लोकमें स्थित मनुष्योंका मृत्युपथ कैसा है ! जो विमल कर्म अर्जित किया होता है वही उनकी रक्षा करता है और वही शरणरूप होता है। (७२) ॥ पद्मचरितमें विशल्याके पूर्वभवोंका कथन नामक तिरसठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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