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३८पउमचरियं
[६३.४३हा परिवग्ग ! गुणायर, वच्छलं तारिसं करेऊणं । कह पावयारिणीए, संपइ मे अवहियं सर्व ॥ ४३ ॥ काऊण विप्पलावं, सा य तहिं गग्गरेण कण्ठेणं । अच्छइ दुक्खियविमणा, बाला घोराडवीमज्झे ॥ ४४ ॥ असण-तिसाअभिभूया, पत्त-फलाहारिणो तहिं बाला । भुञ्जइ य एकवेलं, अट्ठमदसमोववासेहिं ॥ ४५ ॥ गमिओ य सिसिरकालो, सीयमहावेयणं सहन्तीए । अग्गीतावणरहिओ, कुड्डनिवासेण परिहीणो ॥ ४६ ॥ पत्तो वसन्तमासो, नाणविकुसुमगन्धरिद्धिल्लो । तत्तो गिम्हो पत्तो, संतावकरो य सत्ताणं ।। ४७ ।। घणगज्जियतूररवो, धारासंजणियतडयडारावो । चञ्चलतडिच्छडालो, पाउसकालो वि नित्थिण्णो ॥ १८ ॥ एवं साऽणङ्गसरा, वाससहस्साणि तिण्णि तवचरणं । काऊग य संविग्गा, ववसइ संलेहणं तत्तो ॥ ४९ ।। पञ्चक्खिय आहार, चउविहं देहमाइयं सर्व । भणइ य हत्थसयाओ, एत्तो परओ न गन्तवं ।। ५० ॥ नियमस्स छट्टदिवसे, वोलीणे नवरि खेयरो एक्को । नामेण लद्धियासो, पणमिय मेरुं पडिनियत्तो ॥ ५१ ॥ तं दट्टणऽवइण्णो, नेन्तो पिइगोयरं निरुद्धो सो । भणिओ वच्चसु देसं, को वावारो तुम एत्थं ? ॥ ५२ ॥ तुरियं च लद्धियासो, संपत्तो चक्कवट्टिणो मूलं । आगच्छइ तेण समं, जत्थऽच्छइ जोयजुत्ता सा ॥ ५३ ॥ अवइण्णो चक्कहरो, पेच्छइ तं अयगरेण खज्जन्ति । काऊण विप्पलावं, निययपुरं पथिओ सिग्धं ॥ ५४ ॥ बावीससहस्सेहि, पुत्ताणं तिबनायसंवेगो । समणत्तं पडिवन्नो, चक्कहरो तिहुयणाणन्दो ॥ ३५ ॥ खज्जन्तीए वि तहिं, बालाए सो हु अयगरो पावो। नो मारिओ किवाए, मन्तं जाणन्तियाए वि ॥ ५६ ॥ धम्मज्झाणोवगया. खद्धा मरिऊण देवलोगम्मि । उववन्ना कयपुण्णा, देवी दिवेण रूवेणं ॥ ५७ ।।
जिणिऊण खेयरिन्दे, पुणबसू तीऍ विरहदुक्खत्तो । सणियाणो पबइओ, दुमसेणमुणिस्स पासम्मि ।। ५८ ॥ छीन लिया है ? (४३) इस तरह गद्गद् कण्ठसे, विप्रलाप करके दुःखित और हताश वह कन्या उस घोर जंगलमें रहने लगी। (४४)
' भूख और प्याससे पीड़ित वह पत्र एवं फलका आहार करनेवाली कन्या अष्टम और दशम उपवास करके एक बेर ही खाती थी। (४५) अग्निके तापसे रहित तथा मकानमें न रहनेसे ऐसा शिशिरकाल उसने सर्दीकी भारी पीड़ा सहन करके बिताया। (४६) इसके बाद नानाविध कुसुमोंकी गन्धसे समृद्ध वसन्त-मास आया। उसके पश्चात् प्राणियोंको सन्ताप • देनेवाला ग्रीष्मकाल आया । (४७) बादलोंकी गर्जनासे मानों वाद्योंकी ध्वनि करनेवाला, धाराओंके गिरनेसे ततडू आवाज
करनेवाला और चंचल बिजलीकी कान्तिसे युक्त वर्षाकाल भी व्यतीत हुआ। (४८) इस तरह उस अनंगशराने तीन हजार वर्ष तक तपश्चरण किया। इसके बाद संवेगयुक्त उसने संलेखनाके लिए निश्चय किया। (४६) चतुर्विध आहार एवं शरीर आदि सबका प्रत्याख्यान करके उसने कहा कि यहाँसे सौ हाथसे आगे मैं नहीं जाऊँगी। (५०)
नियमधारणका छठा दिन व्यतीत होनेपर लब्धिदास नामका एक खेचर मेरुको प्रणाम करके लौट रहा था। (५१) उसे देखकर वह नीचे उतरा। पिताके पास ले जाने के लिए रुके हुए उसने कहा कि तुम्हारा यहाँ क्या काम है? तुम अपने देश चले जाओ। (३२) लब्धिदास शीघ्र ही चक्रवर्तीके पास गया और उसके साथ जहाँ वह योगयुक्ता अनंगशरा थी वहाँ आया। (५३) चक्रवर्ती नीचे उतरा और अजगर द्वारा खाई जाती उसको देखा। रो-धोकर वह शीघ्र ही अपने नगरकी ओर चल पड़ा। (५४) तीव्र वैराग्य जिसे उत्पन्न हुआ है ऐसे त्रिभुवनानंद चक्रवर्तीने बाईस हजारापुत्रों के साथ श्रमणत्व प्राप्त किया। (५५) वहाँ खाई जाती उस बालाने मंत्र जानते हुए भी कृपावश उस पापी अजगरको नहीं मारा। (५६) धर्मध्यानमें लीन पुण्यशाली वह भक्षित होनेपर मर करके देवलोकमें उत्पन्न हुई और दिव्य रूपवाली देवी हुई। (५७) खेचरेन्द्रों को जीतकर पुनर्वसुने उसके विरहसे दुःखित हो दुमसेन मुनिके पास निदानयुक्त दीक्षा ली। (५८) बादमें तपका आचरण
१. णोसारिशो-प्रत्य।
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