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________________ ६४. विसल्लाआगमणपव्वं सुणिऊण वयणमेयं, सेणिय ! रामो तओ सुपरितुट्ठो । विज्जाहरेहि समय, करेइ मन्तं गमणकज्जे ॥ १ ॥ जम्बूनयाइएहिं, मन्तीहिं राहवो तओ भणिओ । पेसेह जलस्स इमे, अङ्गय-हणुयन्त-जणयसुया ॥२॥ भामण्डलो य हणुओ, सुग्गीवसुओ य रामदेवेणं । भणिया साएयपुरी, बच्चह उदयस्स कज्जेणं ॥ ३ ॥ आणं पडिच्छिऊणं, अह ते विज्जाहरा खणद्धेणं । पत्ता साएयपुरिं, नरिन्दभवणम्मि ओइण्णा ॥ ४ ॥ संगीयएण भरहो, उवगिज्जन्तो विबोहिओ सिग्छ । भवणाउ समोइण्णो, अह पुच्छइ खेयरे तुट्टो ॥ ५ ॥ सीयाहरणनिमित्ते, पहओ लच्छीहरो य सत्तीए । भरहस्स तेहि सिट्ट, कहियं संखेवओ सर्व ॥ ६ ॥ सोऊण इमं भरहो, रुट्ठो दावेइ तो महाभेरी । हय-य-रहेहि समयं, सन्नद्धो तक्खणं चेव ।। ७ ।। सोऊण भेरिसइं, सबो साएयपुरवरीलोगो । किं किं? ति उल्लवन्तो, भयविहलविसंटुलो जाओ ॥८॥ भणइ जणो किं एसो, अइविरियसुओ इहागओ रत्तिं? । भरहस्स छिदहाई, जो निययं चेव पडिकूलो ॥९॥ एयं घेत्तण लहुं, मणिकणयं रुप्पयं पवालं च । वत्थाहरणं च बहु, करेह भूमीहरल्लीणं ॥ १० ॥ रह-य-तुरयारूढा, सुहडा सत्तुग्घयाइया सबे।। सन्नद्धबद्धकवया, भरहस्स घरं समल्लोणा ॥ ११ ॥ रणपरिहत्थुच्छाह, भरहं दट्टण गमणतत्तिल्लं । तो भणइ जणयतणओ, जं भण्णसि तं निसामेहि ॥ १२ ॥ लङ्कापुरी नराहिव!, दूरे लवणो य अन्तरे उयही । भीमो अणोरपारो, कह तं लखेसि पयचारी ? ॥ १३ ॥ भरहेण वि सो भणिओ, काय किं मएत्थ करणिज्ज ? । साहेहि मज्झ सिग्धं, जेण पणाममि ते सर्व ॥१४॥ ६४. विशल्याका आगमन हे श्रेणिक ! यह वचन सुनकर अत्यन्त परितुष्ट राम गमनके लिए विद्याधरोंके साथ परामर्श करने लगे। (१) तब जाम्बूनद ग्रादि मंत्रियोंने रामसे कहा कि इन अंगद, हनुमान तथा जनकसुतको पानी लानेके लिए भेजो । (२) रामने भामण्डल, हनुमान एवं सुग्रीवपुत्र अंगदसे कहा कि पानीके लिए तुम साकेतपुरी जात्रो । (३) आज्ञा मान्य रखकर वे विद्याधर क्षणार्धमें ही सातपुरीमें पहुँच गये और राजभवनमें उतरे। (४) संगीतके द्वारा गुणगान किया जाता भरत शीघ्र ही उठा। सन्तुष्ट वह भवनमेंसे नीचे उतरा और खेचरोंसे पूछा । (५) सीताहरण के कारण लक्ष्मण शक्ति द्वारा आहत हुआ है, यह उन्होंने भरतसे कहा तथा सारी बात संक्षेपसे कह सुनाई। (६) यह सुनकर क्रुद्ध भरतने महाभेरी बजाई और तत्काल ही घोड़े, हाथी एवं रथके साथ तैयार हो गया। (७) मेरीका शब्द सुनकर साकेतपुरी में रहनेवाले सबलोग 'क्या है ? क्या है ?' ऐसा कहते हुए भयसे विह्वल और व्याकुल हो गये। (८) लोग कहने लगे कि क्या सर्वदाका विरोधी और भरतके दोष देखकर घात करनेवाला अतिवीर्यका पुत्र रातमें यहाँ आया है ? (8) मणि, सोना, चाँदी, प्रवाल तथा बहुतसे वस्त्राभरण-इन सबको जल्दी ही ले कर भूमिगृहमें जमा कर डालो। (१०) रथ, हाथी और घोड़े पर सवार शत्रुघ्न आदि सब सुभट तैयार हो और कवच पहनकर भरतके भवनमें आये। (११) युद्धके लिए परिपूर्ण उत्साहवाले तथा गमनके लिये तत्पर भरतको देखकर जनकसुत भामण्डलने कहा कि मैं आपसे जो कहता हूँ वह आप ध्यानसे सुनें। (१२) हे नराधिप ! लवणसमुद्रके बीचमें लंकापुरी आई है। वह समुद्र भयंकर और अतिविस्तीर्ण है। पैरोंसे चलनेवाले आप उसको कैसे लाँध सकेंगे ? (१३) इस पर भरतने उसे कहा कि तो फिर यहाँ क्या कार्य करना चाहिए यह मुझे तुम शीघ्र ही कहो जिससे वह सब मैं उपस्थित करूँ। (१४) तब भामण्डलने कहा कि, हे महायश! विशल्याका यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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