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________________ ३८० पउमचरियं ३५ ॥ 1 ३६ ॥ ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ कोइ भडो सन्नाहं, सहसा विच्छिन्नबन्धणं दहुँ । संधेइ साहुपुरिसो, नह नेहं विहडियं सन्तं ॥ दन्तेसु धरिय खग्गं, आबन्धेऊण परियरं सुहडो । जुज्झइ अविसन्नमणो, सामियपरितोसणुज्जुत्तो ॥ मत्तगयदन्तभिन्नो, विज्जिज्जन्तो य कण्णचमरेहिं । सामियकयकरणिज्जो, सुवइ भडो वीरसेज्जासु सीसगहि एकमेका, छुरियापहरेसु केइ पहरन्ति । असि-कणय- तोमरेहिं, सुहडा घायन्ति अन्नोन्नं ॥ रत्तासोयवणं षिव किंसुयरुक्खाण होज्जसंघायं । जायं खणेण सेन्नं, पयलियरत्तारुणच्छायं ॥ ३९ ॥ केएत्थ गलियसत्था, गरुयपहारा हया ऽहिमाणेणं । पडिउट्ठियं करेन्ता, अन्ने लोलन्ति महिवट्टे ॥ ४० ॥ हत्थी नज्जरियतणू, मुञ्चन्ता रुहिरकद्दमुद्दामं । छज्जन्ति नलयकाले, गिरि व जह गेरुयालिद्धा ॥ ४१ ॥ तुरखुरखउक्खय-रण उच्छाइए दिसाचके । अविभावियदिट्टिपहा, नियया नियए विवाएन्ति ॥ ४२ ॥ एयारिसम्म जुझे, इन्दइणा लक्खणो सवडहुतो । छन्नो सरेहि सिग्धं, तेण वि सो तह विसेसेणं ॥ अह रावणस्स पुत्तो, सिग्धं पेसेइ तामसं अत्थं । नासेइ लक्खणो तं दिवायरत्थेण परिकुविओ ॥ पुणरवि दसाणणसुओ, भीमेहि सरेहि वेढिउं पयओ । आढत्तो सोमिति, सरहं सतुरङ्गमावरणं ॥ तेण वि य वंयणतेयं, अत्थं च वीसज्जिउं पवणवेगं । ववगयविसाणलसिहा, भुयङ्गपासा निरायरिया ॥ जुज्झं काऊण चिरं रामकणिट्टेण इन्दइकुमारो । बद्धो निस्संदेह, भुयङ्गपासेसु अइगाढं ॥ पउमो वि भाणुकण्णं, विरहं काऊण नायपासेहिं । बन्धइ बलपरिहत्थो, दिवायरत्थं पणासेउं ॥ महावि! ते बाणा, भुयङ्गपासा हवन्ति निमिसेणं । अमरा आउहमेया, चिन्तियमेत्ता जहारूवा ॥ ४३ ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ [ ६१. ३५ Jain Education International ४६ ॥ ४७ ॥ जिस प्रकार साधुपुरुष टूटे हुए स्नेहको जोड़ते हैं उसी प्रकार उसे जोड़ता था । (३५) दाँतोंसे तलवार पकड़कर और कमरबन्द कसकर स्वामीके परितोपके लिए उद्यत कोई सुभट मनमें विषण्ण हुए बिना लड़ता था । (३६) मदोन्मत्त हाथीके दाँतसे भिन्न तथा कानरूपी चामरोंसे डुलाया जाता कोई सुभट स्वामीके प्रति कर्तव्यका पालन करके वीर शय्यामें सो गया था । (३७) एक-दूसरे का सिर काटे हुए कई वीर तलवार की चोटसे प्रहार करते थे । तलवार, कनक तथा तोमरसे सुभट एक-दूसरे को घायल करते थे । (३८) मानो रक्ताशोकका वन हो अथवा किंशुकके वृक्षों का समूह हो इस प्रकार क्षणभर में रक्तकी अरुण छायाके प्राकट्यसे सेना हो गई। (३६) नष्ट शस्त्रवाले कई सुभट भारी प्रहारसे आहत होनेसे गिर पड़ते थे और फिर उठते थे । दूसरे जमीन पर लोटते थे । (४०) जर्जरित शरीरवाले तथा रक्तयुक्त तीव्र मदजल छोड़ते हुए हाथी वर्षाकालमें गेरू से सने हुए पर्वतकी भाँति मालूम पड़ते थे । ( ४१ ) हाथी और घोड़ोंकी खुरोंसे खोदनेके कारण उड़ी हुई धूलसे दिशाचक्र छा गया । इससे देखने में विवेक न रहनेके कारण खुद अपनों के साथ ही सुभट लड़ने लगे । (४२) ४८ ॥ ४९ ॥ ऐसे युद्ध में सम्मुख आये हुए लक्ष्मणको इन्द्रजितने बाणोंसे आच्छादितकर दिया। उस लक्ष्मणने भी उसे शीघ्र ही विशेष रूपसे वैसा कर दिया । (४३) इसके बाद रावणके पुत्र इन्द्रजितने शीघ्र ही तामस अत्र फेंका । कुपित लक्ष्मणने दिवाकर से उसका नाश किया। (४४) फिर इन्द्रजित भयंकर बागोंसे रथं एवं अश्वयुक्त लक्ष्मणको बाँधनेमें प्रयत्नशील हुआ । (४५) इस पर उसने भी पवनके जैसे वेगवाले वैनतेय अस्त्रको छोड़ा। और विषानलकी लपटें निकालनेवाले सर्पोंके बन्धनको नष्ट किया । (४६) चिरकाल तक युद्ध करके राम के छोटे भाई लक्ष्मणने इन्द्रजित कुमारको अत्यन्त गाढ़ नागपाशमें असन्दिग्ध रूपसे बाँध दिया । (४७) पराक्रम में कुशल रामने दिवाकर का विनाश करके तथा रथरहित बनाकर भानुकको नागपाशसे बाँध लिया । (४८) For Private & Personal Use Only हे मगधनरेश ! ये बाण निमिषमात्र में नागपाश हो जाते हैं और आयुधका विनाश करनेवाले वे अमर बाण चिन्तन करने पर पुनः जैसेके तैसे हो जाते हैं । (४६) नागपाशमें बद्ध तथा निश्चेष्ट उसे रामके कहनेसे भामण्डलने १. वैनतेयं अनं गरुडानमित्यर्थः । www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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