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________________ ३८१ ६१. ६५] ६१. सत्तिसंपायपव्वं सो नायपासबद्धो. निच्चेट्टो राहवस्स वयणेणं । भामण्डलेण गन्तुं, निययरहे विलइओ सिग्धं ॥ ५० ॥ इन्दइभडो वि एवं, बद्धो च्चिय लक्खणस्स आणाए । सिग्धं विराहिएण वि, आरुहिओ सन्दणे नियए ॥ ५१ ॥ एवं अन्ने वि भडा, घणवाहणमाइया रणे गहिया । बद्धा य वाणरेहिं, पवेसिया निययसिबिरं ते ॥ ५२ ॥ एयन्तरम्मि समरे, बिभीसणं भणइ दहमुहो रुट्ठो । विसहसु पहारमेक, जइ रणकण्डु समुबहसि ॥ ५३ ॥ तेण वि य धीरमइणा, भणिओ एक्कण किं व पहरेणं । होऊण अप्पमत्तो, आहणसु मए जहिच्छाए ॥ ५४ ॥ सो एवभणियमेत्तो, घत्तइ सूल सहोयरस्स रणे । तं पि य सरेहि एन्तं, रामकणिट्ठो निवारेइ ॥ ५५ ॥ दट्ठ ण निरागरियं, सूलं लंकाहिवो परमरुट्ठो । गेण्हइ अमोहविजयं, सत्तिं उक्का इव जलन्ती ॥ ५६ ॥ ताव य जलहरसामं, पेच्छइ गरुडद्धयं ठियं पुरओ। वित्थिण्णविउलवच्छं, पलम्बबाहु महापुरिसं ॥ ५७ ॥ तं भणइ रक्खसबई, अन्नस्स मए समुज्जयं सत्थं । को तुज्झ आहियारो, धट्ठ ! ममं ठाविउं पुरओ? ॥ ५८ ॥ नइ वा इच्छसि मरिउं, लक्खण ! इह भडसमूहसंघट्टे । तो ठाहि सवडहुत्तो, विसहसु सत्तीपहारं मे ॥ ५९ ॥ ओसारिऊण एत्तो, विहीसणं लक्खणो सह रिऊणं । जुज्झइ रणे महप्पा, दढववसाओ भयविमुक्को ॥ ६० ॥ अह रावणेण सत्ती, मुक्का जालाफुलिङ्गनियरोहा । गन्तूण लक्खणं सा, भिन्दइ वच्छत्थलाभोगे ॥ ६१॥ सो तेण पहारेणं, सोमित्ती तिबवेयणुम्हविओ । मुच्छानिमोलियच्छो, धस त्ति धरणीयले पडिओ ॥ ६२ ॥ एयन्तरम्मि रामो, पडियं दट्ठ ण लक्खणं समरे । अह जुज्झिउं पवत्तो, समयं विजाहरिंदेहिं ॥ ६३ ॥ सो तेण तक्खणं चिय, दसाणणो छिन्नचावधयकवओ। विरहो कओय माणी, चलणेसु ठिओ धरणिवढे ॥ ६४ ॥ अन्न रहं विलग्गो, जाव य धणुयं लएइ तुरन्तो । ताव च्चिय दहबयणो, पउमेण कओ रणे विरहो ।। ६५ ।। जा करके अपने रथमें चढ़ा लिया । (५०) इसी प्रकार बद्ध इन्द्रजीत सुभटको भी लक्ष्मणकी आज्ञासे विराधितने अपने रथमें चढ़ाया । (५१) इसी तरह मेघवाहन आदि दूसरे सुभट भी युद्धमें पकड़े गये। वानरोंने उन्हें बाँधकर अपने शिबिरमें दाखिल किया। (५२) __इस बीच युद्ध में रुष्ट रावणने विभीषणसे कहा कि यदि तुझे युद्धकी खुजली आ रही है तो तू एक प्रहार सहन कर । (५३) धीरमतिने भी उससे कहा कि एक प्रहारसे क्या? अप्रमत्त होकर तुम इच्छानुसार मुझ पर प्रहार करो। (५४) इस तरह कहे गये उसने (रावणने) युद्ध में भाईके ऊपर शूल फेंका। उस आते हुए शूलको लक्ष्मणने बाणोंसे निवारण किया। (५५) दूर हटाये गये शूलको देखकर अत्यन्त रुष्ट रावणने उल्काकी भाँति जलती हुई अमोघविजया नामकी शक्ति धारण की । (५६) उसी समय उसने बादलके समान श्याम वर्णवाले, गरुड़की ध्वजावाले, विशाल एवं मोटी छातीवाले तथा लम्बी भुजाओंवाले महापुरुषको (लक्ष्मणको ) सम्मुख अवस्थित देखा । (५७) उसे राक्षसपतिने कहा कि दूसरेके लिए मैंने शस्त्र उठाया है। अरे धृष्ट ! मेरे सामने खड़े होनेका तुझे क्या अधिकार है ? (५८) हे लक्ष्मण ! यदि तू सुभट समूहके संघर्ष में मरना चाहता है तो सामने खड़ा रह और मेरा शक्तिप्रहार सहन कर । (५९) इस पर विभीषणको एक ओर हटाकर दृढ़ निश्चयवाला तथा भयसे मुक्त महात्मा लक्ष्मण युद्ध में शत्रुसे लड़ने लगा । (६०) तब रावणने ज्वाला एवं चिनगारियोंके समूहसे व्याप्त एक शक्ति छोड़ी। जा करके उसने लक्ष्मणके विशाल वक्षस्थलके प्रदेशको भेद डाला। (६१) उस प्रहारके कारण तीव्र वेदनासे सन्तप्त और मूर्खासे आँखें बन्द किया हुआ लक्ष्मण धड़ामसे जमीन पर गिर पड़ा। (६२) लक्ष्मणको युद्धमें गिरते देख राम विद्याधरेन्द्र के साथ लड़ने लगे। (६३) उनके द्वारा तत्काल ही धनुष, ध्वजा एवं कवच नष्ट किया गया तथा रथहीन बनाया गया अभिमानी रावण जमीन पर पैरोंसे खड़ा रहा । (६४) दूसरे रथमें बैठकर जबतक वह रावण धनुष लेता है तबतक वो रामने उसे लड़ाईमें रथहीन बना दिया। (६५) रामके १. समयं चिय रक्खसिंदेणं-मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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