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[ १०६. ३१महुरसरुग्गीयनिग्घोसा ॥ ३१ ॥ पासाए निच्चरमणिज्जे ॥
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पउमचरियं. वरकञ्चणभित्तीया, सव्वुवगरणेहिं संजुया रम्मा । वीणा-वंसरवेण य, वरजुवईहिं मणहरे, विवुहावासे व रयणपज्जलिए । कह पुत्त मुञ्चह इमे, आंहार-पाण-चन्दण-मल्ला-SSहरणेसु लालिया तुम्मे । विसहिस्सह कह एयं, दुक्करचरियं मुणिवराणं ॥ कह नेहनिब्भराओ, मुञ्चह नणणीउ विलवमाणीओ । न य जीवन्ति खणं पि हु, 'तुज्झ विओगम्मि एयाओ ॥ ३४॥ सो तेहिं वि पडिभणिओ, ताय ! भमन्ताण अम्ह संसारे । जणणीण सयसहस्सा, पियराण य वोलियाऽणन्ता ॥३५॥ न पिया न चेव माया, न य भाया नेय अत्यसंबन्धा । कुबन्ति परित्ताणं, जीवस्स उ धम्मरहियस्स ॥ ३६ ॥ जं भणसि ताय ! भुञ्जह, इस्सरियं एत्थ माणुसे जम्मे । तं खिवसि अन्धकूवे, जाणन्तो दुत्तरे अम्हे ॥ ३७ ॥ सलिलं चैव पियन्तं, हरिणं जह हणइ एक्कओ वाहो । तह हणइ नरं मच्चू, तिसियं चिय कामभोगेसु ॥ ३८ ॥ . जइ एव विप्पओगो; नायइ बन्धूहिं सह धुवो एत्थं । तो कीस कीरइ रई, बन्धणसिणेहनडिओ, पुणरवि भोगेसु दारुणं सत्तो । पुरिसो पावइ दुक्खं दुक्खसलिलावगाढे, कसाय गाहुकडे भवावत्ते । घणदोम्गइविच्चीए,
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संसारे दोसबाहुल्ले ? ॥ ३९ ॥ चिरकालं दीहसंसारे ॥ ४० ॥ नरमरण किलेसकल्लोले ॥ ४१ ॥
४२ ॥
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यारिसे महायस !, भमिया संसारसायरे अम्हे । दुक्खाईं अणुहवन्ता, कह कह वि इहं समुत्तिष्णा ॥ संसारियदुक्खाणं, भीया नरमरणविप्पओगाणं । अणुमन्नसु ताय ! तुमं, पबज्जं गिण्हिमो अज्जं ॥ ते एव निच्छियमणा, दिक्खाभिमुहा सुया मुणेऊणं । अणुमन्निया कुमारा, अवगूढा लच्छिनिलएणं ॥ आउच्छिऊण पियरं, बन्धुनणं चेव सबजणणीओ । ताहे गया कुमारा, महिन्दउदयं वरुज्जाणं ॥ चइऊण निरवसेसं, परिग्गहं नायतिवसंवेगा । सरणं महाबलमुणिं, पता ते अट्ठ वि कुमारा ॥ सभी उपकरणोंसे युक्त, वीणा और बंसीकी ध्वनिसे रम्य तथा मधुर स्वरवाले गीतों के निर्घोषसे सम्पन्न तुम्हारे ये महल हैं । (३०-३१) पुत्रो ! सुन्दर युवतियोंके कारण मनोहर, रत्नोंसे देदीप्यमान देवोंके आवास जैसे और नित्य रमणीय ऐसे इन प्रासादों को क्यों छोड़ते हो ? (३२) आहार, पान, चन्दन, पुष्प एवं आभरणोंसे लालित तुम मुनिवरोंके दुष्कर चरित्रको कैसे सह सकोगे ? ( ३३ ) स्नेहसे परिपूर्ण रोती हुई माताओंका तुम कैसे त्याग करोगे ? तुम्हारे वियोग में ये क्षणभर भी जीती नहीं रहेंगी । (३४)
४४ ॥ ४५ ॥ ४६ ॥
इस पर उन्होंने उसे कहा कि, हे तात! संसार में घूमते हुए हमारे लाखों माताएँ और अनन्त पिता व्यतीत हो चुके हैं । (३५) इस लोकमें धर्मरहित जीवकी रक्षा न पिता, न माता, न भाई और न सगे सम्बन्धी ही कर सकते हैं । (३६) पिताजी ! आपने जो कहा कि इस मनुष्यजन्म में ऐश्वर्यका उपभोग करो, तो ऐसा कहकर आप हमें जानबूझकर दुस्तर ऐसे अन्धे कुएँ में फेंक रहे हैं । (३७) जिस तरह पानी पीते हुए हिरनको अकेला व्याध मार डालता है उसी तरह कामभोगों में प्यासे मनुष्यको मृत्यु मार डालती है । (३८) यदि इस लोक में बन्धुजनोंके साथ अवश्य ही वियोग होता हो तो दोषोंसे भरे हुए संसार में रति क्यों की जाय ? ( ३६ ) स्नेहके बन्धन में नाचता हुआ मनुष्य भोगों में पुनः पुनः अत्यन्त आसक्त हो दीर्घ संसार में चिरकाल तक दुःख पाता है । (४०) हे महायश ! दुःखरूपी जलसे भरे हुए, कषायरूपी ग्राहोंसे व्याप्त, भवरूपी वर्तवाले, दुर्गतिरूपी विशाल तरंगोंसे युक्त तथा जन्म-मरणके क्लेशोंसे कल्लोलित - ऐसे संसारसागर में भटकते हुए और दुःख अनुभव करते हुए हम किसी तरहसे यहाँ तैरकर आये हैं । (४१-४२) हे तात ! संसारके जन्म, मरण और वियोगके दुःखोंसे भयभीत हमें आप अनुमति दें । हम आज प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे । (४३)
इस तरह दृढ़ मनवाले और दीक्षा की ओर अभिमुख पुत्रोंको जानकर लक्ष्मणने अनुमति दी और आलिंगन किया । (४४) तब पिता, बन्धुजन तथा सब माताओंसे पूछकर कुमार महेन्द्रोदय नामके उत्तम उद्यानमें गये । (४५) समप्र परिग्रहका त्याग करके तीव्र संवेगवाले उन आठों कुमारोंने महाबल मुनिकी शरण ली। (४६) समिति और गुप्तिसे युक्त तथा १. तुम्भ वि० मु० ।
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