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________________ ५६३ १०७.६] १०७. भामंडलपरलोयगमणविहाणपव्वं उग्गं तवोविहाणं, कुणमाणा समिइ-गुत्तिसंजुत्ता । अह ते कुमारसमणा, विहरन्ति 'महिं दढधिईया ॥ ४७ ॥ एय कुमारवरनिक्खमणं पसत्थं, भावेण जे वि हु 'सुणन्ति नराऽपमत्ता । ताणं पणस्सइ खणेण समत्थपावं, बोहीफलं च विमलं समुवज्जिणन्ति ॥ ४८ ॥ .. ॥ इइ पउमचरिए कुमारनिक्खमणं नाम छउत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ १०७. भामंडलपरलोयगमणविहाणपव्वं वीरजिणिन्दस्स गणी, पढमपयं संसिओ मइपगब्भो । साहइ मणोगय सो. भामण्डलसन्तियं चरियं ॥ १ ॥ निसुणेहि मगहसामिय!, अह सो भामण्डलो पुरे नियए । भुञ्जइ खेयरइड्डि, कामिणिसहिओ सुरिन्दो व ॥२॥ चिन्तेऊण पयत्तो, संपइ जइ ह लएमि जिणदिक्खं । तो जुवइपउमसण्डो, सुस्सिहिइ इमो न संदेहो ॥ ३ ॥ कामिणिमणमज्झगओ, विसयसुहं मुञ्जिऊण चिरकालं । पच्छा तवं सुघोरं, दुक्खविमोक्खं करिस्से हैं ॥ ४ ॥ भोगेसु अज्जियं जं, पावं अइदारुणं पमाएणं । तं पच्छिमम्मि काले, झाणग्गीणं दहिस्से हं ॥५॥ अहवा वि माणभङ्ग, समरे काऊण खेयरभडाणं । ठावेमि वसे दोणि वि, आणाकारीउ सेढोओ ॥ ६ ॥ मन्दरगिरीसु बहुविहरयणुज्जोवियनियम्बदेसेसु । कीलामि तत्थ गन्तुं, इमाहिं सहिओ पणइणीहिं ॥ ७ ॥ वत्थूणि एवमाई, परिचिन्तन्तस्स तस्स मगहवई ।। भुञ्जन्तस्स य भोगं, गयाई संवच्छरसयाइं ॥ ८॥ एवं काऊण इम, करेमि कालम्मि चिन्तयन्तस्स । भामण्डलस्स आउं, संथारं आगयं ताव ॥ ९॥ दृढ़ बुद्धिवाले वे कुमारश्रमण उग्र तपोविधि करते हुए पृथ्वी पर विहार करने लगे। (४७) कुमारोंके इस प्रशस्त निष्क्रमणको जो पुरुष अप्रमत्त होकर भावपूर्वक सुनते हैं उनका सारा पाप क्षण भरमें नष्ट हो जाता है और वे विमल वोधिफल प्राप्त करते हैं। (४८) ॥ पद्मचरितमें कुमारोंका निष्क्रमण नामका एक सौ छठ पर्व समाप्त हुआ । १०७. भामण्डलका परलोक गमन तब वीर जीवेन्द्रके श्लाघनीय और समर्थ बुद्धिशाली प्रथम गणधर गौतमस्वामी मनमें रहा हुआ भामण्डल विषयक चरित कहने लगे। (१) हे मगधनरेश ! तुम सुनो। वह भामण्डल स्त्रियोंके साथ अपने नगरमें सुरेन्द्रकी भाँति खेचरऋद्धिका उपभोग करता था । (२) वह सोचने लगा कि यदि मैं दीक्षा लूँ तो यह युवतीरूपी पद्मवन सूख जायगा, इसमें सन्देह नहीं। (३) स्त्रियोंके बीचमें रहा हुआ मैं चिरकाल तक विषयसुखका उपभोग करके बादमें दुःखका नाश करनेवाला घोर तप करूँगा । (४) भोगोंमें प्रमादब्रश जो अतिदारुण पाप अजित करूँगा वह बादके समयमें (वृद्धावस्था में) ध्यानाग्निसे मैं जला डालूँगा। (५) अथवा युद्ध में खेचर-सुभटोंका मानभंग करके दोनों श्रेणियोंको आज्ञाकारी बनाकर बसमें करूँ। (६) मन्दराचल पर आये हुए नानाविध रत्नोंसे उद्योतित प्रदेशोंमें इन रुियों के साथ जाकर क्रीड़ा करूँ। (७) हे मगधपति! ऐसी बातें सोचते हुए और भोगका उपभोग करते हुए उसके सैकड़ों साल बीत गये। (८) 'ऐसा करके समय आने पर यह करूँगा'-ऐसा सोचते हुए भामण्डलकी बिछौने पर पड़े रहनेकी आयु (वृद्धावस्था) आ गई । (६) . १. महिन्ददढधिइया-मु०। २. सुणिति-प्रत्य० । ३. एवमा-प्रत्यः। ४. एयं का.-प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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