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________________ १०६. कुमारनिक्खमणपव्वं १९ ॥ २० ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ लवणं-ऽ'कुसाण कुद्धं, भाइबलं तेहिं अट्ठहिं नहिं । मन्तेहि व उवसमियं, भुयंगमाणं समूहं व ॥ १५ ॥ ताहे लऽ कुसणं, पाणिग्गहणं कमेण निबत्तं । बहुतूर - सङ्खपउरं, नञ्चन्तविलासिणिजणोहं ॥ १६ ॥ ते लक्खणस्स पुता, दट्ठण सयंवरिं महारिद्धिं । अह भाणिउं पयत्ता, सामरिसा दुट्ठवयणाई ॥ १७ ॥ अम्हे कि केण हीणा, गुणेहिं एयाण जाणइसुयाणं ! । जेणं चिय परिहरिया, कन्नाहिं विवेगरहियाहिं ॥ १८ ॥ एयाणि य अन्नाणि य, सोयन्ता तत्थ वरकुमारा ते । भणिया रूवमईए, सुएण अइबुद्धिमन्तेणं ॥ महिलाऍ कए कम्हा, सोयह तुम्भेत्थ दारुणं सबे । होहह उवहसणिज्जा, इमाऍ चेट्ठाऍ लोगस्स ! ॥ कम्मं, हंव असुहं व एत्थ संसारे । तं तेण पावियबं, तुब्भे मा कुह परितावं ॥ एयाण अदूधुवाणं, कयलीथम्भ व साररहियाणं । भोगाण विससमाणं, करण मा दुक्खिया होह ॥ तायस्स मए अङ्के, ठिएण बालेण पोत्थयग्मि सुयं । वयणं जह मणुयभवो, भवाण सव्वुत्तमो एसो ॥ तं एव इमं लधु, माणुसनम्मं जयम्मि अइदुलहं । कुणह परलोयहिययं, निणवरधम्मं पयत्तेणं ॥ दाणेण साहवाणं, भोगो लब्भइ तवेण देवतं । नाणेण सिद्धिसोक्खं, पाविज्जइ सीलसहिएणं ॥ नायस्स धुवं मरणं, दोग्गइगमणं च होइ परलोगे । तं एव जाणमाणा, सबे वि य कुणह निणधम्मं ॥ सुणिऊण वयणमेयं, पडिबुद्धा ते तहिं कुमारवरा । पियरं कयञ्जलिउडा, भणन्ति निसुणेहि विन्नप्पं ॥ नइ ताय ! इच्छसि हियं, अम्हाणं वल्लभाण पुत्ताणं । तो मा काहिसि विग्धं, दिक्खाभिमुहाण सवाणं संसारम्मि अणन्ते, परिभमिया विसयलोलुया अम्हे । दुक्खाणि अणुहवन्ता, संपइ इच्छामि पबइउं ॥ तो भइ लच्छिनिलओ, वयणं अग्घाइउं सिरे पुत्ता । कइलाससिहरसरिसा, एए च्चिय तुम्ह पासाया ॥ अंकुशके ऊपर क्रुद्ध भाइयोंकी सेनाको उन आठ जनोंने मन्त्रोंसे शान्त किये जानेवाले सर्पोंके समूहकी भाँति, शान्त किया । (२५) तब लवण और अंकुशका पाणिग्रहण विधिवत् सम्पन्न हुआ । उस समय अनेक विध वाद्य और शंख बज रहे थे और वारांगनाओंका समूह नाच रहा था । (१६) २४ ॥ २५ ॥ २९ ॥ ३० ॥ लक्ष्मणके वे पुत्र स्वयम्वरकी महान् ऋद्धिको देखकर ईर्ष्यावश दुष्ट वचन कहने लगे कि क्या हम इन जानकीपुत्रोंसे गुणों में कुछ हीन हैं कि विवेकरहित इन कन्याओंने हमको छोड़ दिया । (१७-१८) इन तथा ऐसे दूसरे वचन सुनकर रूपमतीके अत्यन्त बुद्धिशाली पुत्रने उन कुमारोंसे कहा कि तुम सब स्त्रीके लिए क्यों दारुण शोक करते हो? ऐसी चेष्टासे लोगों में तुम उपहसनीय होओगे । ( १९-२० ) इस संसारमें जिसने जैसा शुभ अथवा अशुभ कर्म किया होगा, वैसा ही फल पावेगा । अतः तुम दुःख मत करो । ( २१) इन अध्रुव, केलेके खम्भेके समान सारहीन और विषतुल्य भोगोंके लिए तुम दुःखी मत हो । (२२) बचपनमें पिता की गोद में बैठे हुए मैंने पुस्तकमेंसे यह वचन सुना था कि मनुष्यभव सब भवोंमें उत्कृष्ट है । (२३) जगत में अतिदुर्लभ ऐसे इस मनुष्यजन्मको पाकर परलोक में हितकर जिनवरके धर्मका प्रयत्नपूर्वक आचरण करो । ( २४) साधुओं को दान देनेसे भोग मिलता है, तपसे देवत्व और शीलसहित ज्ञानसे सिद्धिका सुख मिलता है । (२५) जो पैदा हुआ है उसका मरण निश्चित है और परलोकमें दुर्गति में जाना पड़ता है । यह जानके सब कोई जिनधर्मका पालन करें। (२६) १०६. ३०] Jain Education International २६ ॥ २७ ॥ ॥२८॥ यह कथन सुनकर वे कुमारवर वहीं प्रतिबुद्ध हुए। हाथ जोड़कर उन्होंने पिता से कहा कि आप हमारी बिनती सुनें । (२७) हे तात! हम प्रिय पुत्रोंका यदि आप हित चाहते हैं तो दीक्षाकी ओर अभिमुख हम सबके ऊपर विघ्न मत डालना । (२८) विषयलोलुप हम दुःखों का अनुभव करते हुए अनन्त संसारमें भटके हैं। अब हम प्रव्रज्या लेना चाहते हैं । (२६) तब लक्ष्मणने सिर पर सूँघकर कहा कि पुत्रो ! कैलासपर्वतके शिखरके जैसे ऊँचे ये सोनेकी उत्तम दीवारोंवाले, १. मन्तोहि य उद० मु० । २. अम्हेहिं केण - प्रत्य० । ३. रूववईए - प्रत्य• । ४. होह उवहासणिजा - मु० । ५. ब दुक्खं व-प्रत्य• । ६. ० ह य परलोयहियं - मु० । ७. तहिं वरकुमारा प्रत्य० । 109 For Private & Personal Use Only ५६१ www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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