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________________ ४६४ पउमचरियं [६४.८५एयाणि य अन्नाणि य, विलविय सेणावई तहिं रणे । मोत्तण जणयतणयं, चलिओ साएयपुरिहुत्तो ॥ ८५॥ सीया वि तत्थ रण्णे, सन्नं लधूण दुक्खिया कलुणं । रुवइ सहावविमुक्का, निन्दन्ती चेव अप्पाणं ॥ ८६ ॥ हा पउम! हा नरुत्तम, हा विहलियजणसुवच्छल ! गुणोह ! सामिय भउद्याए, किं न महं दरिसणं देहि ? ॥८७॥ तुह दोसस्स महाजस!, थेवस्स वि नत्थि एत्थ संबन्धो । अइदारुणाण सामिय!, मह दोसो पुवकम्माणं ॥८८॥ किं एत्थ कुणइ ताओ, किं व पई ? किं व बन्धवजणो मे ? । दुक्खं अणुहवियब, संपइ य उवट्ठिए कम्मे ॥ ८९॥ नणं अवण्णवायं, लोए य अणुट्टियं मए पुवं । घोराडवीऍ मज्झे, पत्ता जेणेरिसं दुक्ख ॥ ९० ॥ अहवा वि अन्नजम्मे, घेत्तृण वयं पुणो मए भग्गं । तस्सोयएण एयं, दुक्खं अइदारुणं जायं ॥ ९१ ॥ अहवा पउमसरत्थं, चक्कायजुयं सुपीइसंजुत्तं । भिन्नं पावाएँ पुरा, तस्स फलं मे धुवं एयं ॥ ९२ ॥ किं वा वि कमलसण्डे, विओइयं हंसजुयलयं पुवं । अइनिग्धिणाएँ संपइ, तस्स फलं चेव भोत्तवं ॥ ९३ ॥ अहवा विमए समणा, दुगुंछिया परभवे अपुण्णाए । तस्स इमं अणुसरिसं, भुञ्जयवं महादुक्ख ॥ ९४ ॥ ना सयलपरियणेणं, सेविजन्ती सुहेण भवणत्था । सा हं सावयपउरे, चेट्टामिह भीसणे रणे ।। ९५ ॥ नाणारयणुज्जोए, पडसयपच्चत्थुए य सयणिज्जे । वीणा-वंसरवेणं, उवगिज्जन्ती सुहं सइया ॥ ९६ ॥ सा हं पुण्णस्स खए, गोमाउय-सीहभीमसदाले । रण्णे अच्छामि इहं, वसणमहासागरे पडिया ॥ ९७ ॥ किं वा करेमि संपइ !, कवणं व दिसन्तरं पवज्जामि ? । चिट्टामि कत्थ व इहं, उप्पन्ने दारुणे दुक्खे ? ॥९८॥ हा पउम ! बहुगुणायर !, हा लक्खण ! किं तुमं न संभरसिहा ताय ! किं न याणसि. एत्थारण्णे ममं पडियं ॥१९॥ धामरूप धर्म नहीं करते । (८४) ऐसे तथा दूसरे विलाप करके सेनापति सीताको वहीं अरण्यमें छोड़ साकेतकी ओर चल पड़ा। (८५) उस वनमें होशमें आकर दुःखी सीता धैर्य का त्याग करके अपनी निन्दा करती हुई करण स्वरमें रोने लगी। (८६) हा राम ! हा नरोत्तम ! हा व्याकुल जनोंके वत्सल ! गुणौघ ! हे स्वामी ! भयसे उद्विग्न मुझे दर्शन क्यों नहीं देते ? (८७) हे महायश! आपके दोषका यहाँ तनिक भी सम्बन्ध नहीं है। हे नाथ ! मेरे अत्यन्त दारण पूर्वकर्मों का ही दोष है। (EL) इसमें पिता क्या करें? मेरे पति या बान्धवजन भी इसमें क्या करें? कर्मका उदय होने पर दुःखका अनुभव करना ही पड़ता है। (८९) अवश्य ही पूर्वजन्ममें मैंने लोकमें अवर्णवाद (धर्मकी निन्दा) किया होगा जिससे घोर जंगल में मैंने ऐसा दुःख पाया है। (१०) अथवा पूर्वजन्म में व्रत अंगीकार करके फिर मैंने तोड़ा है। उसके उदयसे ऐसा अतिदारुण दुःख हुआ है । (६१) अथवा पापी मैंने पद्मसरोवरमें स्थित प्रीतियुक्त चक्रवाक मिथुनको पहले जुदा कर दिया था। उसीका मुझे यह फल मिल रहा है । (६२) अथवा कमलवनमें हंसके जोड़ेको अतिनिर्दय मैंने पहले वियुक्त कर दिया था। अब उसका फल मुझे भोगना चाहिए । (९३) अथवा अपुण्यशालिनी मैंने परभवमें श्रमणोंकी निन्दा की होगी। उसके अनुरूप यह महादुःख मुझे भोगना चाहिए। (६४) जो महलमें आरामसे रहकर सब परिजनों द्वारा सेवित थी वह मैं जंगली जानवरोंसे भरे हुए भीषण वनमें ठहरी हुई हूँ। (६५) नाना प्रकारके रत्नोंसे उद्योदित और सैकड़ों वत्रोंसे आच्छादित शयनमें वीणा और बंसीकी ध्वानसे गाई जाती सुखपूर्वक सोती थी वह मैं पुण्य का क्षय होने पर दुःखरूपी महासागर में पड़कर सियार और सिंहके भीषण शब्दोंसे युक्त इस वनमें बैठी हुई हूँ। (६६-६७) अब मैं क्या करूँ ? किस दिशामें जाऊँ ? दारुण दुःख उत्पन्न होने पर मैं कहाँ बैठू? (३८) हा अनेक गुणोंकी खानरूप राम ! हा लक्ष्मण ! क्या तुम याद नहीं करते ? हा तात ! इस अरण्य में पड़ी हुई मेरे बारे में क्या तुम नहीं जानते ? (६६) १. दुक्खे अणुहवियब्वे-मुः। २. अवण्णवणं, लो.-मु०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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