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________________ ४६३ ९४. ८४] १४. सीयानिव्वासणपव्वं नं नस्स अणुसरिच्छं, अहियं तं तस्स हवइ भणियबं । को सयलजणस्स इहं, करेइ मुहबन्धणं पुरिसो?॥७॥ मह वयणेण भणेज्जसु, सेणावइ ! राहवं पणमिऊणं । दाणेण भयसु बलियं, बन्धुजणं पोइनोएणं ॥ ७१ ।। भयसु य सीलेण परं, मित्तं सब्भावनेहनिहसेणं । अतिहिं समागयं पुण, मुणिवसहं सबभावेणं ॥ ७२॥ खन्तीऍ निणसु कोवं, माणं पुण मद्दवप्पओगेणं । मायं च अजवेणं, लोभं संतोसभावेणं ॥ ७३ ॥ बहुसत्यागमकुसलस्स तस्स नय-विणयसंपउत्तस्स । किं दिजउ उवएसो, नवरं पुण महिलिया चवला ॥ ७४ ॥ चिरसंवसमाणीए, बहुदुच्चरियं तु जं कयं सामि ! । तं खमसु मज्झ सबं, मउयसहावं मणं काउं ॥ ७५ ॥ सामिय ! तुमे समाणं, मह होज न होज दरिसणं नूणं । जइ वि य अवराहसंयं, तह विय सबं खमेज्जासु ॥७६॥ सा एव जंपिऊणं, पडिया खरकक्करे धरणिवट्टे । मुच्छानिमीलियच्छी, पत्ता अइदारुणं दुक्खं ॥ ७७ ।। दछृण धरणिपडियं, सीयं सेणावई विगयहासो । चिन्तेइ इहारण्णे, कल्लाणी दुक्करं जियइ ।। ७८ ॥ धिद्धी किवाविमुक्को, पावो हैं विगयलज्जमज्जाओ। जणनिन्दियमायारो, परपेसणकारओ भिच्चो ॥ ७९ ॥ नियइच्छवज्जियस्स उ, अहियं दुक्खेक्कतग्गयमणस्स । भिच्चस्स जीवियाओ, कुक्कुरजीयं वरं हवइ ।। ८० ॥ रघरलद्धाहारो, साणो होऊण वसइ सच्छन्दो। भिच्चो परबसो पुण, विक्कियदेहो निययकालं ।। ८१ ॥ भिच्चस्स नरवईणं, दिन्नाएसस्स पावनिरयस्स । न य हवइ अकरणिज्जं, निन्दियकम्मं पि जं लोए ।। ८२ ॥ पुरिसत्तणम्मि सरिसे, जं आणा कुणइ सामिसालस्स । तं सर्व पञ्चक्खं, दीसइ य फलं अहम्मस्स ॥ ८३ ॥ घिद्धी अहो! अकज्ज, जं पुरिसा इन्दिएसु आसत्ता । कुवन्तिह भिच्चत्तं, न कुणन्ति सुहालयं धम्म ॥ ८४ ॥ वचनके लिए जो योग्य होता है उसे वैसा ही कहा जाता है। यहाँ ऐसा कौन मनुष्य है जो सब लोगोंका मुँह बन्द कर सके। (७०) हे सेनापति ! प्रणाम करके तुम रामको मेरी ओरसे कहना कि दानसे बलवान्की और स्नेहसे बन्धुजनकी सेवा करना। (७१) शीलसे शत्रुकी, सद्भाव एवं स्नेहसे मित्रकी और आये हुए अतिथि मुनिवरकी सर्वभावसे सेवा करें। (७२) क्रोधको शान्ति से, मानको मार्दवके प्रयोगसे मायाको ऋजुभावसे और लोभको सन्तोषवृत्तिसे जीतना। (७३) शास्त्र एवं आगममें अतिकुशल तथा नय एवं विनयसे युक्त उन्हें मैं क्या उपदेश दूं? फिर मैं तो केवल एक चंचल स्त्री हूँ।(७४) हे स्वामी ! चिर काल तक पास में रहनेसे जो मैंने बहुत दुश्चरित किया है उसे, मनको मृदु स्वभाववाला बनाकर, आप क्षमा करें। (७५) हे नाथ ! तुम्हारे जैसे मेरे पति हैं, परन्तु फिर भी तुम्हारे दर्शन अब मुझे नहीं होंगे। यद्यपि मैंने सैकड़ों अपराध किये हैं, फिर भी वे सब आप क्षमा करें। (७६) ऐसा कहकर वह कठोर और कर्कश जमीन पर गिर पड़ी। मूर्खासे बँद आँखोंवाली उसने अत्यन्त दारुण दुःख पाया। (७७) सीताको जमीन पर गिरी हुई देख जिसकी हँसी नष्ट हो गई है ऐसे उस सेनापतिने सोचा कि इस अरण्यमें कल्याणी सीता मुश्किलसे जी सकेगी। (७८) दयाहीन, पापी, लाज-मर्यादासे रहित, लोकनिन्दित आचारवाले और दूसरेकी आज्ञाके अनुसार करनेवाले मुझ नौकरको धिक्कार है। (७६) अपनी इच्छासे रहित और एकमात्र दुःखमें ही मनको लीन रखनेवाले भृत्यके जीवनसे तो कुत्तका जीवन अधिक अच्छा है। (८०) दूसरेके घर पर आहार करके कुत्ता स्वच्छन्द भावसे रहता है, किन्तु नौकर तो परवश होता है और सदाके लिए उसने अपना शरीर बेच दिया होता है। (८१) राजा द्वारा आज्ञा दिये गये और पापनिरत भृत्यके लिए लोकमें जो भी निन्दित कार्य होता है वह अकरणीय नहीं होता । (२) पुरुषत्व तो समान होने पर भी स्वामीकी जो आज्ञा पाली जाती है वह सब अधर्मका फल है ऐसा प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। (८३) इन्द्रियोंमें आसक्त पुरुष जो अकार्य करते हैं उसके लिए धिक्कार है। लोग नौकरी करते हैं, पर सुखका १. सणं भूयं-प्रत्य। ५. कुब्वंति अभि.-प्रत्यः । २. सयं तं चिय सव्वं-प्रत्य। ३. ०वाइ मुक्को-प्रत्य०। ४. ० इहव०-प्रत्य.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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