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________________ ९५.२] ४१५ ९५. सीयासमासासणपव्वं हा विज्जाहरपत्थिव !, भामण्डल ! पाविणी इहारण्णे । सोयण्णवे निमग्गा, तुम पि किं मे न संभरसि ! ॥१०॥ अहवा वि इहारणे. निरत्थयं विलविएण एएणं । किं पुण अणुहवियवं, जं पुवकयं मए कम ॥ १०१ ॥ एवं सा जणयसुया, जावऽच्छइ ताव तं वणं पढमं । बहुसाहणो पविट्ठो, नामेणं वजनवनिवो ॥ १०२ ॥ पोण्डरियपुराहिवई, गयवन्धत्थे समागओ रणे । घेत्तण कुञ्जरवरे, निग्गच्छइ साहणसमग्गो ॥ १०३ ॥ ताब य जे तस्स ठिया, पुरस्सरा गहियपहरणावरणा । सोऊण रुण्णसई, सहसा खुभिया विचिन्तेन्ति ॥१०४॥ गय-महिस-सरह-केसरि-बराह-रुरु-चमरसेविए रणे । का एसा अइकलुणं, रुवइ इह दुक्खिया महिला ? ॥१०५॥ किं होज देवकन्ना, सुरवइसावेण महियले पडिया ? । कुसुमाउहस्स किं वा, कुविया य रई इहोइण्णा ॥१०६॥ एवं सवियक्कमणा, नवि ते वच्चन्ति तत्थ पुरहुत्ता । सबे वि भउबिग्गा, वग्गीभूया य चिट्ठन्ति ॥ १०७ ।। तत्थ वणे महयं पि बलं तं, महिलारुण्णसरं सुणिऊणं । नायभयं अइचञ्चलनेतं, खायजसं विमलं पि निरुद्धं ॥ १०८ ॥ । इइ पउमचरिए सीयानिव्यासणविहाणं नाम चउणउयं पव्वं समत्तं ।। ९५. सीयासमासासणपव्वं नाव य सा निययचमू, रुद्धा गङ्ग व पबयवरेणं । ताव करेणुविलग्गो, पराइओ वजजङ्घनिवो ॥ १ ॥ पुच्छइ आसन्नत्थे, केणं चिय तुम्ह गइपहो रुद्धो । दीसह समाउलमणा, भयविहलविसंटुला सबे ? ॥ २ ॥ हा विद्याधरराज भामण्डल ! शोकसागरमें निमग्न पापिनी में इस अरण्यमें हूँ। क्या तुम भी मुझे याद नहीं करते ? (१००) अथवा यहाँ अरण्यमें ऐसा निरर्थक विलाप करने से क्या? मैंने पूर्वजन्ममें जो पापकर्म किया था उसका अनुभव करना ही पड़ेगा। (१०१) इस प्रकार विलाप करती हुई वह जनकसुता सीता जव बैठी हुई थी तब उस वनमें उसके आगमनसे पहले वनजंघ नामके राजाने विशाल सेनाके साथ प्रवेश किया था। (१०२) पौण्डरिकपुरका वह राजा हाथियोंको पकड़ने के लिए उस अरण्य में आया था। हाथियोंको लेकर वह सेनाके साथ जा रहा था। (१०३) उस समय उसके आगे जानेवाले जो प्रहरण और कवच धारण किये हुए सैनिक थे वे रोनेका शब्द सुनकर सहसा क्षुब्ध हो सोचने लगे कि हाथी, भैंसे, शरभ, सिंह, वराह, मृग, चमरीगायसे युक्त इस वनमें कौन यह दुःखित स्त्री अत्यन्त करुण विलाप कर रही है ? (१०४-१०५) इन्द्रके शापसे जमीन पर गिरी हुई क्या यह कोई देवकन्या है ? अथवा कामदेवकी कुपित रति यहाँ अवतीर्ण हुई है ? (१०६) इस प्रकार मनमें विकल्पयुक्त वे वहाँ से आगे नहीं जाते थे। भयसे उद्विग्न वे सब व्यग्र होकर ठहर गये। (१०७) उस वनमें स्त्रीका रुदन-स्वर सुनकर भयभीत, अतिचंचल नेत्रवाला, ख्यातयश और निर्मल भी वह महान् सैन्य रुक गया। (१०८) ॥ पद्मचरितमें 'सीता निर्वासन-विधान' नामक चौरानवेवाँ पर्व समाप्त हुआ। ९५. सीताको आश्वासन जब अपनी उस सेनाको पर्वतसे रुद्ध गंगाकी भाँति अवरुद्ध देखा तब हाथी पर बैठा हुआ वनजंघ राजा आया। ११) उसने समीपस्थ लोगोंसे पूछा कि किसने तुम्हारा गमन-मार्ग रोका है १ तुम सब मनमें व्याकुल तथा भयसे विह्वल १. पाविणीइ दीणाए। इह रण्णवे णिमग्गं, तुर्म-प्रत्य० । २. रणं-प्रत्य। ३. पुरिहुत्ता-प्रत्य०। ४. महि लयरुण्णसरं निसुणे-मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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